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अध्याय २१ : अाश्रमकी झांकी ४३५ोो

बातचीत करता और उन्हें इंसाफ करने के लिए समझाता । “हमें भी तो अपनी टेक रखनी है । हमारा और मजदूरोंका वाप-बेटोंका संबंध है । . . . . उसके बीचमें यदि कोई पड़ना चाहे तो इसे हम कैसे सहन कर सकते हैं ? बाप-बेटोंमें पंचकी क्या जरूरत है ?” यह जवाब मुझे मिलता ।

                               २१
                         आश्रमकी भांकी
   
   मजदूर-प्रकरणको आगे ले चलनेके पहले आश्रमकी एक झलक देख लेनेकी आवश्यकता है। चंपारनमें रहते हुए भी मैं आश्रमको भूल नहीं सकता था । कभी-कभी वहां आ भी जाता था । 
   कोचरब अहमदाबादके पास एक छोटा-सा गांव है । आश्रमका स्थान इसी गांवमें था । कोचरबमें प्लेग शुरू हुआ । बालकोंको मैं बस्तीके भीतर सुरक्षित नहीं रख सकता था । स्वच्छताके नियमोंका पालन चाहे लाख करें, मगर आस-पासकी गंदगीसे आश्रमको अछूता रखना असंभव था । कोचरबके लोगोंसे स्वच्छताके नियमों का पालन करवानेकी अथवा ऐसे समय में उनकी सेवा करनेकी शक्ति हममें न थी । हमारा आदर्श तो आश्रमको शहर या गांवसे दूर रखना था, हालांकि इतना दूर नहीं कि वहां जानेमें बहुत मुश्किल पड़े। आश्रमकॊ आश्रमके रूप में सुशोभित होनेके पहले उसे अपनी जमीनपर खुली जगहमें स्थिर तो हो ही जाना था । 
   इस महामारीको मैंने कोचरब छोड़नेका नोटिस माना। श्री पुंजाभाई हीराचंद आश्रमके साथ बहुत निकट संबंध रखते और आश्रमकी छोटी-बड़ी सेवायें निरभिमानं-भावसे करते थे । उन्हें अहमदावादके काम-काजका बहुत अनुभव था । उन्होंने आश्रमके लायक आवश्यक जमीन तुरंत ही ढूंढ़ देनेका बीड़ा उठाया । कोचरबके उत्तर-दक्षिणका भाग मै उनके साथ घूम गया । फिर मैंने उनसे कहा कि उत्तरकी ओर तीन-चार मील दूरपर अगर जमीनका टुकड़ा मिले तो खोजिए । अब  जहांपर आश्रम है, वह जमीन उन्हींकी ढूंढी हुई है ।