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 ४४९ आत्म-कथा : भाग ५

ही खातिर करनी थी । -

     खिलाफत के प्रश्न में मैंने मुसलमानों का जो साथ दिया, उसके विषय में मित्रों और टीकाकारों ने मुझे खूब खरी-खोटी सुनाई है । इस सबका विचार करने पर भी मैंने जो राय कायम की, जो मदद दी या दिलाई, उसके लिए मुझे जरा भी पश्चाताप नहीं है । न उसमें कुछ सुधार ही करना है । आज भी ऐसा प्रश्न यदि उठ खड़ा हो तो, मुझे लगता है, मेरा आचरण उसी प्रकार का होगा ।
     इस तरह के विचार के लिये ही मैं दिल्ली गया । मुसलमानों की इस शिकायत के बारे में मुझे वाइसराय से चर्चा करनी ही थी । खिलाफत के प्रश्न ने अभी अपना पूर्ण रूप नहीं धारण किया था ।
    दिल्ली पहुंचते ही दीनबंधु एंड्रूजने एक नैतिक प्रश्न ला खड़ा किया । इस अर्से में इटली और इंग्लैंड के बीच गुप्त-संधि-विषयक चर्चा अंग्रेजी अखबारों में आई । दीनबंधु ने मुझसे उसके संबंध में बात की और कहा, “ अगर ऐसी गुप्त संधिया इंग्लैंड ने किसी सरकार के साथ की हो तो फिर आप इस सभा में कैसे शामिल हो कर मदद दे सकते हैं ?” मैं इस संधि के बारे में कुछ नहीं जानता था । दीनबंधु का शब्द मेरे लिए बस था । इस कारण को पेश करके मैंने लार्ड चेम्सफोर्डको लिखा कि मुझे सभा में आने से उज्र है । उन्होंने मुझे चर्चा करने के लिए बुलाया । उनके साथ और फिर मि० मैफी के साथ मेरी लंबी चर्चा हुई । इसका अंत यह हुआ कि मैंने सभा में जाना स्वीकार कर लिया । संक्षेप में वाइसराय की दलील यह थी-“आप कुछ यह तो नहीं मानते कि ब्रिटिश मंत्रिमंडल जो कुछ करे, वाइसराय को उसकी खबर होनी चाहिए ? में यह दावा नहीं करता कि ब्रिटिश सरकार किसी दिन भूल करती ही नहीं । यह दावा में ही क्या, कोई नहीं करता, मगर आप यदि यह कबूल करें कि उसका अस्तित्व संसार के लिए लाभकारी है, उसके कारण इस देश को कुल मिलाकर लाभ ही पहुंचा है, तो या फिर आप यह नहीं कबूल करेंगे कि उसकी आपत्ती के समय उसे मदद पहुँचाना हर एक नागरिक का धर्म है । गुप्त-संधि के संबंध में आप ने अखबारों में जो देखा है, सो मैंने भी पढ़ा है । मैं आप को विश्वास दिला सकता हुँ कि इससे अधिक कुछ भी नहीं जानता । यह भी तो आप जानते ही हैं कि अखबारों में कैसी गप्पें आती हैं । तो क्या आप अखबारों में छपी एक निंदक बात से ऐसे समय में सल्तनत को छोड़ सकते हैं ? लड़ाई