पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४६६

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अध्याय २७ : रंगंरूटोंकी भरती Yళ खतम होनेके बाद श्रापको जितने नीतिके प्रश्‍न उठाने हों, श्राप उठा सकते हैं, और जितनी छानबीन करनी हो, कर सकते हैं । ” यह दलील नई न थी; परंतु जिस श्रवसरपर जिस प्रकार वह रक्खी गई, उससे मुझे नई-सी जान पड़ी और मैने सभामें जाना मंजूर कर लिया । यह निश्‍चित हुआ कि खिलाफतके बारेमें वाइसरायको पत्र लिखकर भेजूं । २७ रंगंरूटोंकी भरती सभामें मैं हाजिर हुश्रा । वाइसरायकी तीव्र इच्छा थी कि मैं सैन्य भरतीके प्रस्तावका समर्थन करूं । मैंने हिंदुस्तानीमें बोलनेकी प्रार्थना की । वाइसरायने यह स्वीकार कर ली; मगर साथ ही श्रंग्रेजीमें भी बोलनेका अनुरोध किया । मुझे भाषण तो देना था ही नहीं। मैं इतना ही बोला- “ मुझे श्रपनी जिम्मेदारीका पूरा भान है और उस जिम्मेदारीको समझते हुए मैं इस प्रस्तावका समर्थन करता हूं । ” हिंदुस्तानीमें बोलनेके लिए मुझे बहुतोंने धन्यवाद दिया । बे कहते थे कि वाइसरायकी सभामें हिंदुस्तानी बोलनेकां इस जमानेमें यह पहला ही दृष्टांत था । यह धन्यवाद और पहला ही दृष्टांत होनेकी खबर मुझे श्रखरी । मैशरमाया । श्रपने ही देशमें देश-संबंधी कामकी सभामें, देशी भाषाका बहिष्कार · या उसकी श्रवगणना होना कितने दु:खकी बात है ? और मुझ जैसा कोई शख्स यदि हिंदुस्तानीमें एक या दो वाक्य बोल ही दे तो उसे धन्यवाद किस बात का ? ऐसे प्रसंग हमें श्रपनी गिरी हुई दशाका भान कराते हैं । संभामें जो वाक्य मैंने कहे थे उनमें मेरे लिए तो बहुत वजन था; क्योंकि यह सभा या यह समर्थन ऐसे न थे, जिन्हें मैं भूल सकू । श्रपनी एक जिम्मेदारी तो मुझे दिल्लीमें ही खत्म कर लेनी थी । वाइसरायको पत्र लिखनेका काम मुझे श्रासान नहीं लंगा । सभामें जानेकी श्रपनी श्रानाकानी, उसके कारण, भविष्यकी प्राशाएं वगैराका खुलासा, अपने लिए सरकारके लिए, और प्रजाके लिए, करनेकी श्राव्यशकता मुझे जान पड़ती थी । । मैने वाइसरायको पत्र लिखा । उसमें लोकमान्य तिलक, श्रली भाई २६ ।।