पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४६७

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Y以o अंत्मि-कथा : भाग ५ श्रादि नेताओंकी गैरहाजिरीके बारेमें अपना खेद प्रकट किया, लोगोंकी राजनैतिक मांगों और लड़ाईमेंसै उत्पन्न मुसलमानोंकी मांगोंका उल्लेख किया । यह पत्र छापनेकी इजाजत मैंने वाइसरायसे मांगी, जो उन्होंने खुशीसे दे दी । यह पत्र शिमला भेजना था, क्योंकि सभा खत्म होते ही वाइसराय शिमला चले गये थे । वहां डाकसे पत्र भेजनेमें ढील होती थी । मेरे मनमें पत्र महत्त्वपूर्ण था । समय बचानेकी जरूरत थी । चाहे जिसके हाथसे भेजनेकी इच्छा नहीं होती थी । मुझे ऐसा लगा कि अगर यह पत्र किसी पवित्र आदमीके हाथसे जाय तो बड़ा अच्छा है । दीनबंधु और सुशील रुदने रेवरेंड श्रायलैंड महाशयका नाम सुझाया । उन्होंने यह मंजूर किया कि पत्र पढ़नेपर अगर शुद्ध लगेगा तो ले जाऊंगा । पत्र खानगी तो था ही नहीं । उन्होंने पढ़ा, वह उन्हें पसंद प्राया और उसे ले जानेको राजी हो गये । मैंने दूसरे दर्जेका रेल-भाड़ा देनेकी व्यवस्था की; किंतु उन्होंने उसे लेनेसे इन्कार कर दिया और रातका सफर होनेपर भी इंटरका ही टिकट लिया। उनकी इस सादगी, सरलता, स्पष्टतापर मैं मोहित हो गया । इस प्रकार पवित्र हाथों भेजे गये पत्रका परिणाम मेरी दृष्टिसे अच्छा ही हुश्रा । उससे मेरा मार्ग साफ हो गया । मेरी दूसरी जिम्मेदारी रंगरूट भरती करने की थी । मैं यह याचना खड़ामें न करूं तो और कहां करता ? अपने साथियोंको अगर पहले न्यौता न दू तो और किसे दू' ? खेड़ा पहुंचते ही वल्लभभाई वगैराके साथ सलाह की । कितनों हीके गले यह घूट तुरत न उतरी । जिन्हें यह बात पसंद भी पड़ी, उन्हें कार्यकी सफलताके बारे में संदेह हुश्रा । फिर जिस वर्गमॅसे यह भरती करनी थी, उसके मनम इस सरकारके प्रति कुछ भी प्रेम न था । सरकारके अफसरोंके द्वारा हुए कडुए अनुभव अभी उनके दिमागमें ताजे ही थे । । तो भी कार्यारंभ करनेके पक्षमे सभी हो गये । कार्यका प्रारंभ करते ही मेरी प्रांखें खुल गई । मेरा आशावाद भी कुछ ढीला पड़ा । खेड़ाकी लड़ाईमें लोग खुश हो कर मुफ्तमें गाड़ी देते थे, जहां एक स्वयंसेवककी जरूरत होती वहां तीन-चार मिल जाते थे । अब पैसा देनेपर भी गाड़ी दुर्लभ हो गई। किंतु इस तरह मै कोई निराश होनेवाला जीव नहीं था । गाड़ीके बदले पैदल ही सफर करनेका निश्चय किया । रोज बीस मीलकी मंजिल तै करनी थी। जब गाड़ी