पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४६८

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अध्याय २७ : रंगरूटोंकी भरती ४५१ ही नहीं मिलती थी तो खाना कहांसे मिलता ? मांगना भी उचित नहीं जान पड़ता था । इसलिए यह निश्चय किया कि प्रत्येक स्वयंसेवक अपने भोजनका सामान अपने झोलेमें लेकर ही बाहर निकले । मौसम गर्मीका था । इसलिए ओढ़नेका कुछ सामान साथ रखनेकी जरूरत नहीं थी । जिस-जिस गांवमें हम जाते, वहां सभा करते । लोग श्राते तो मगर भरतीके लिए नाम मुश्किलसे एक या दो ही मिलते । ‘श्राप श्रहिंसावादी होकर हमें हथियार लेनेके लिए क्यों कहते हैं ? सरकारने हिंदुस्तानका कौनसा भला किया है जो श्राप उसे मदद देनेपर जोर देते हैं ? ' इस तरहके अनेक सवाल हमारे सामने पेश किये जाते थे । ऐसा होने पर भी हमारे सतत कामका असर लोगोंपर होने लगा था । नाम भी यों ठीक संख्यामें लिखे जान लगे और हम मानने लगे कि अगर पहली टुकड़ी निकल पड़े तो दूसरीके लिए रास्ता साफ हो जायगा । कमिश्नरके साथ मैंने यह चर्चा शुरू कर दी थी कि जो रंगरूट भरती हो जायं उन्हें कहां रखना चाहिए, इत्यादि । दिल्लीके नमूनेपर कमिश्नर लोग जगह-जगह सभाएं करने लग थे । वैसी सभा गुजरातमें भी हुई । उसमें मुझे और मेरे साथियोंको भी श्राने का श्रामंत्रन था । यहां भी मैं गया था । किंतु अगर दिल्लीमें मेरा जाना कम शोभता जान पड़ा था तो यहां और भी कम लगा । ‘जी-हां’ ‘जी-हां' के वातावरणमें मुझे चैन नहीं पड़ता था । यहां मैं जरा ज्यादा बोला था । मेरे बोलनेमें खुशामद जैसा तो था नहीं, बल्कि दो-एक कडुए वचन भी थे । रंगरूटोंकी भरतीके संबंध में मैंने पत्रिका छापी थी । उसमें भारती होनेके निमंत्रणमें एक दलील दी थी, जो कमिश्नरको खटकी थी । उसका सार यह था- “ब्रिटिश राज्यके अनेक अपकृत्योंमें सारी जनताको शस्त्र-रहित करनेके कानूनका इतिहास उसका सबसे काला काम माना जायगा । यदि यह कानून रद्द कराना हो और शस्त्र चलाना सीखना हो तो उसके लिए यह सुवर्ण योग है । राजकी इस प्रापतिके समय में मध्यमवर्ग यदि स्वेच्छासे मदद करेगा तो इससे पारस्परिक अविश्वास दूर होगा और जो शस्त्र धारण करना चाहते हैं वे खुशीसे उन्हें रख सकेंगे ।” इसको लक्ष्य करके कमिश्नरको कहना पड़ा था कि उनके और मेरे बीच मतभेद होते हुए भी सभामें मेरी हाजिरी उन्हें प्रिय थी । मुझे भी अपने