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अध्याय ८ : चोरी और प्रायश्चित


रहता था। उनके सामने जाकर बैठ गया।

उन्होंने चिट्ठी पढ़ी। आंखोंसे मोतीके बूंद टपकने लगे। चिट्ठी भीग गई। थोड़ी देरके लिए उन्होंने आंखें मूंद लीं। चिट्ठी फाड़ डाली। चिट्ठी पढ़नेको जो वह उठ बैठे थे सो फिर लेट गये।

मैं भी रोया। पिताजीके दु:खको अनुभव किया। यदि मैं चितेरा होता तो आज भी उस चित्रको हूबहू खींच सकता। मेरी आंखोंके सामने आज भी वह दृश्य ज्यों-का-त्यों दिखाई दे रहा है।

इस मोती-बिंदुके प्रेमबाणने मुझे बींध डाला। मैं शुद्ध हो गया। इस प्रेमको तो वही जान सकता है, जिसे उसका अनुभव हुआ है-

रामबाण वाग्यांरे होय ते जाणे[१]

मेरे लिए यह अहिंसाका पदार्थ-पाठ था। उस समय तो मुझे इसमें पितृ-वात्सल्यसे अधिक कुछ न दिखाई दिया, पर आज मैं इसे शुद्ध अहिंसाके नामसे पहचान सका हूं। ऐसी अहिंसा जब व्यापक रूप ग्रहण करती है तब उसके स्पर्शसे कौन अलिप्त रह सकता है? ऐसी व्यापक अहिंसाके बलको नापना असंभव है।

ऐसी शांतिमय क्षमा पिताजीके स्वभावके प्रतिकूल थी। मैने तो यह अंदाज किया था कि वह गुस्सा होंगे, सख्त-सुस्त कहेंगे शायद अपना सिर भी पीट लें। पर उन्होंने तो असीम शांतिका परिचय दिया। मैं मानता हूं कि यह अपने दोषको शुद्ध हृदयसे मंजूर कर लेने का परिणाम था।

जो मनुष्य अधिकारी व्यक्तिके सामने स्वेच्छापूर्वक अपने दोष शुद्ध हृदयसे कह देता है और फिर कभी न करनेकी प्रतिज्ञा करता है, वह मानो शुद्धतम प्रायश्चित करता है। मैं जानता हूं कि मेरी इस दोष-स्वीकृतिसे पिताजी मेरे संबंधमें नि:शंक हो गये और उनका महाप्रेम मेरे प्रति और भी बढ़ गया।

  1. प्रेम-बाणसे जो बिंधा हो वही उसके प्रभावको जानता है-अनु०