पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४७०

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अध्याय २७ : रंगरूटोंकी भरती 있 • “ परंतु शिक्षित वर्गने इससे कम कारगर रास्ता अख्तियार किया है । जन-समाजमें उसकी पहुंच बहुत है । मै जबसे हिंदुस्तानमें आया हूं तभीसे जनसमाजके गाढ़ परिचयमें आता रहा हूं और मैं आपको यूह कहना चाहता हूं कि उनमें होमरूल प्राप्त करनेका उत्साह पैदा हो गया है । बिना होमरूलके प्रजाको कभी संतोष न होगा । वे यह समझते हैं कि होमरूल प्राप्त करनके लिए जितना भी त्याग किया जा सके कम ही होगा । इसलिए यद्यपि साम्राज्यके लिए जितने भी स्वयंसेवक दिये जा सकें देने चाहिएं, किंतु मैं आर्थिक मददके लिए यह नहीं कह सकता हूं ॥ लोगोंकी हालतको जानकर मैं यह कह सकता हूं कि हिंदुस्तान अबतक जितनी मदद कर चुका है वह भी उसकी शक्तिसे अधिक हैं । परंतु में इतना अवश्य समझता हूं कि जिन्होंने सभामें प्रस्तावका समर्थन किया। उन्होंने इस कार्यसे प्राणांत तक मदद करनेका निश्चय किया है । परंतु हमारी स्थिति मुश्किल है । हम कोई दूकानके हिस्सेदार नहीं । हमारी मददकी नींव भविष्यकी आशापर स्थित है; और वह आशा क्या हैं, यह यहां विशेषरूपसे कहना चाहिए । मैं कोई सौदा करना नहीं चाहता। फिर भी मुझे इतना तो यहां अवश्य कहना चाहिए कि यदि इसमें हमें निराश होना पड़ा तो साम्राज्यके बारे में आज-तक हमारी जो धारणा है वह केवल भ्रम समझी जाएगी । - आपने अंदरूनी झगड़े भूल जानेकी जो बात कही है उसका अर्थ यदि यह हो कि जुल्म और अधिकारियोंके अपकृत्य सहन करें तो यह असंभव है । संगठित जुल्मके सामने अपनी सारी शक्ति लगा देना मैं अपना धर्म समझता हूं । इसलिए आप अधिकारियोंको हिदायत दें कि वे किसी भी जीवकी अवहेलना न करें और पहले कभी जितना लोकमतका आदर नहीं किया उतना अब करें । चंपारनमें सदियोंके जुल्मका विरोधकर मैंने ब्रिटिश न्यायका सर्वश्रेष्ठ होना प्रमाणित कर दिया है । खेड़ाकी रैयतने यह देख लिया है कि जब उसमें सत्यके लिए कष्ट सहन करनेकी शक्ति हैं तब सच्ची शक्ति राज्य नहीं, बल्कि लोकमत है । और इसलिए जिस सल्तनतको प्रजा शाप दे रही थी उसके प्रति अब