पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४७४

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अध्याय २८: मृत्यु-शैय्यापर ४५७ मशविरा किया और बड़ी हिफाजतसे मुझे वे अपने मिरजापुरवाले बंगले पर ले गये । मैं यह तो जरूर कहूंगा कि इस बीमारीमें जो निर्मल निष्काम सेवा मुझे मिली उससे अधिक सेवा तो कोई नहीं प्राप्त कर सकता । मंद ज्वर आने लगा और शरीर भी क्षीण होता चला । मालूम हुआ कि बीमारी बहुत दिनतक चलेगी औरै शायद मैं बिस्तरसे भी न उठ सकूं । अंबालाल सेठके बंगलेमें प्रेमसे घिरा हुआ होनेपर भी मेरे चित्तमें अशांति पैदा हुई और मैंने उनसे मुझे आश्रममें पहुंचानेके लिए कहा । मेरा अत्यंत आग्रह देकर वह मुझे आश्रम ले आये । आश्रममें में यह पीड़ा भोग रहा था कि इतनेमें वल्लभभाई यह खबर लाये कि जर्मनी पूरी तरह हार गया और कमिशनरने कहलाया है कि अब रंगरूटोंकी भरती करनेकी जरूरत नहीं है । इसलिए रंगरूटोंकी भरती करनेकी चिंतासे मैं मुक्त हो गया और इससे मुझे शांति मिली । अब पानीको उपचारोंपर शरीर टिका हुश्रा था । दर्द चला गया पर शरीर किसी तरह पनप नहीं रहा था । वैद्य और डाक्टर मित्र अनेक प्रकारकी सलाह देते थे । पर मैं किसी तरह दवा लेनेके लिए तैयार न हुआ । दो-तीन मित्रोंने दूध लेनेमें कोई बाधा हो तो मांस का शोरबा लेनेकी सिफारिश की और अपने कथनकी पुष्टिमें आयुर्वेदसे इस श्राशयके प्रमाण बताये कि दवाके बतौर मांसादि चाहे जिस वस्तुका सेवन करनेमें कोई हानि नहीं । एक मिसने अंडे खानेकी सलाह दी । पर उनमेंसे किसीकी भी सलाहको मैं स्वीकार न कर सका । सबके लिए मेरा तो एक ही जवाब था। खाद्याखाद्यका सवाल मेरे लिए महज शास्त्रोंके श्लोकोंपर निर्भर न था। उसका तो मेरे जीवनके साथ स्वतंत्र रीतिसे निर्माण हुआ था । हर कोई चीज खाकर हर किसी तरह जीनेका मुझे जरा भी लोभ न था। अपने पुत्रों, स्त्री और स्नेहियोंके लिए मेने जिस धर्मपर अमल किया उसका त्याग मैं अपने लिए कैसे कर सकता था । इस तरह इस बहुत लंबी बीमारीमें, जो कि गंभीरताके खयालसे मेरे जीवनमें मुझे पहले ही पहल हुई थी, मुझे धर्म-निरीक्षण करनेका तथा उसे कसौटीपर चढ़ानेका अलभ्य लाभ मिला । एक रात ताे मैं जीवनसे बिल्कुल निराश हो गया था । मुझे मालूम हुआ कि अंतकाल अा पहुंचा । श्रीमती अनसूयाबहनको