पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४७५

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४५८ आत्म-कथा : भाग ५ समाचार भिजवाये । वह आईं। वल्लभभाई आये । डा० कानूगोने नब्ज देखकर कहा, “मुझे तो ऐसा एक भी चिह्न नहीं दिखाई देता, जो भयंकर हो । नब्ज बिलकुल अच्छी है, केवल कमजोरीके कारण यह मानसिक अशांति आपकाे है।” पर मेरा दिल गवाही नहीं देता था । रात तो बीती । उस रात शायद ही मुझे नींद आई हो । सवेरा हुआ । मृत्यु न आई। फिर भी मुझे जीनेकी आशा नहीं हो पाई थी । मैं तो यही समझ रहा था कि मृत्यु नजदीक आ पहुंची है । इसलिए जहां तक हो सका, अपने साथियोंसे गीता सुनने हीमें अपने समयका उपयोग मैं करने लगा । कुछ काम-काज करनेको शक्ति तो थी ही नहीं । पढ़नेकी शक्ति भी न रह गई थीं । किसीसे बाततक करनेको जी न चाहता था । जरा-सी बातचीत करने में दिमाग थक जाता था । इससे जीने में कोई आनंद नहीं रहा था । महज जीनेके लिए जीना मुझ कभी पसंद नहीं था । बिना कुछ काम-काज किये साथियों से सेवा लेते हुए दिन-ब-दिन क्षीण होनेवाली देह को टिकाये रखना मुझे बड़ा कष्टकर प्रतीत होता था । इस तरह मृत्युकी राह देख रहा था कि इतनेमें डा० तलवलकर एक विचित्र प्राणीको लेकर आए । वह महाराष्ट्रीय हैं। उनको हिंदुस्तान नहीं जानता । पर मेरे ही जैसे ‘चक्रम' हैं, यह मैंने उन्हें देखते ही जान लिया । वह अपना इलाज मुझपर आजमानेके लिए आये थे । बंबईके ग्रेंड मेडिकल कॉलेजमें पढ़ते थे । पर उन्होंने द्वारकाकी छाप- उपाधि-- प्राप्त न की थी । मुझे बादमें मालूम हुआ कि वह सज्जन ब्रह्मसमाजी हैं । उनका नाम है केलकर । बड़े स्वतंत्र मिजाजके आदमी हैं । बरफके उपचारके बड़े हिमायती हैं । मेरी बीमारीकी बात सुनकर जब वह अपने बरफके उपचार मुझपर आजमानेके लिए आये, तबसे हमने उन्हें 'आइस डाक्टर' की उपाधि दे रक्खी है । अपनी रायके बारे में वह बड़े आग्रही हैं। डिग्रीवारी डाक्टरोंकी अपेक्षा उन्होंने कई अच्छे अविष्कार किये हैं, ऐसा उन्हें विश्वास हैं । वह अपना यह विश्वास मुझमें उत्पन्न नहीं कर सके, यह उनके और मेरे दोनोंके लिए दुःखकी बात है । मैं उनके उपचारोंको एक हद तक तो मानता हूं। पर मेरा खयाल है कि उन्होंने कितने ही अनुमान बांधनेमें कुछ जल्दबाजी की है । उनके आविष्कार सच्चे