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आत्म-कथा : भाग १

पिताजीकी मृत्यु और मेरी शर्म

यह ज़िक्र मेरे सोलहवें सालका है। पाठक जानते हैं कि पिताजी भगंदर की बीमारीसे बिलकुल बिछौनेपर ही लेटे रहते थे। उनकी सेवा-शुश्रूषा अधिकांशमें माताजी, एक पुराने नौकर और मेरे जिम्मे थी। मैं 'नर्स' -परिचारकका काम करता था। घावको धोना, उसमें दवा डालना, जरूरत हो तब मरहम लगाना, दवा पिलाना, और जरुरत हो तब घर पर दवा तैयार करना, यह मेरा खास काम था। रातको हमेशा उनके पैर दबाना और जब वह कहें तब, अथवा उनके सो जानेके बाद, जाकर सोना मेरा नियम था। वह सेवा मुझे अतिशय प्रिय थी। मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी दिन मैंने इसमें गफलत की हो। ये दिन मेरे हाईस्कूलके थे। इस कारण भोजन-पानसे जो समय बचता वह या तो स्कूलमें या पिताजीकी सेवा-शुश्रूषामें जाता। जब वह कहते, अथवा उनकी तबीयतके अनुकूल होता, तब शामको घूमने चला जाता।

इसी वर्ष पत्नी गर्भवती हुई। आज मुझे इसमें दोहरी शर्म मालूम होती है। एक तो यह कि विद्यार्थी-जीवन होते हुए मैं संयम न रख सका, और दूसरे यह कि यद्यपि मैं स्कूलकी पढ़ाई पढ़नेका और इससे भी बढ़कर माता-पिताकी भक्तिको धर्म मानता था-यहांतक कि इस संबंधमें बाल्यावस्थासे ही श्रवण मेरा आदर्श रहा था-तथापि विषय-लालसा मुझपर हावी हो सकी थी। यद्यपि मैं रातको पिताजी के पांव दबाया करता, तथापि मन शयन-गृहकी तरफ़ दौड़ा करता और वह भी ऐसे समय कि जब स्त्री-संग धर्म-शास्त्र, वैद्यक-शास्त्र और व्यवहार-शास्त्र तीनोंके अनुसार त्याज्य था। जब उनकी सेवा-शुश्रूषासे मुझे छुट्टी मिलती तब मुझे खुशी होती और पिताजीके पैर छूकर मैं सीधा शयन-गृह में चला जाता।

पिताजीकी बीमारी बढ़ती जाती थी। वैद्योंने अपने-अपने लेप आजमाये, हकीमोंने मरहम-पट्टियां आजमाईं, मामूली नाई-हजामों आदिकी घरेलू दवाएं कीं, अंग्रेज डाक्टरने भी अपनी अक्ल लड़ा देखी। अंग्रेज़ डॉक्टरने कहा, नश्तर लगानेके सिवा दूसरा रास्ता नहीं। हमारे कुटुंबके मित्र वैद्यने आपत्ति की और