पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४८८

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अध्याय ३२ : वह सप्ताह !--२ ४७१ कमिश्नरसे मैंने जो कुछ देखा था उसका वर्णन किया । उसने संक्षेपमें जवाब दिया-- “ जलूस को हम फोर्टकी ओर जाने देना नहीं चाहते थे । वहां जलूस जाता तो उपद्रव हुए बिना नहीं रह सकता था । और मैंने देखा कि लोग केवल कहने से ही लौट जानेवाले नहीं थे । इसलिए भीड़में धंसे बिना और चारा ही नहीं था । ”

मैंने कहा-- “ मगर उसका परिणाम तो आप जानते थे ? लोग घोड़ोंके नीचे जरूर ही कुचल गये हैं । मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि घुड़सवारों की टुकड़ीको भेजने की जरूरत ही न थी ।” -

साहबने जवाब दिया--“ इसका पता आपको नहीं चल सकता । हम पुलिसवालों को आपसे कहीं अधिक इसका पता रहता हैं कि लोगोंके ऊपर आपकी सीखका कैसा असर पड़ा है । हम अगर पहलेसे ही कड़ी कार्रवाई न करें तों अधिक नुकसान होता हैं । में आपसे कहता हूं कि लोग तो आपके भी प्रभावमें रहनेवाले नहीं हैं। कानूनके भंगकी बातं वे चट समझ लेते हैं, मगर शांतिकी बात समझना उनकी शक्तिके बाहर हैं । आपका हेतु अच्छा है, मगर लोग आपका हेतु नहीं समझते; वे तो अपने ही स्वभावके अनुसार काम करेंगे ।” मैन कहा-- “ यही तो आपके और मेरे बीच मतभेद हैं । लोग स्वभावसे ही लड़ाके नहीं हैं । किंतु शांतिप्रिय हैं ।” प्रब बहस होने लगी । अंतम साहब बोले-- “ खैर अगर आपको यह विश्वास हो जाय कि लोगोंने आपकी शिक्षाको नहीं समझा, तो आप क्या करेंगे ?”

मैंने जवाब दियां--“ अगर मुझे यह विश्वास हो जाय तो इस लड़ाई-को मै स्थगित कर दूंगा । ” 

“ स्थगित करनेके क्या मानी ? आपने तो मि० बोरिंगसे कहा है कि मैं छूटते ही तुरंत पंजाब लौटना चाहता हूं ।” “हां, मेरा इरादा तो दूसरी ही ट्रेन से लौटनेका था; किंतु यह तो आज् नहीं हो सकता ।” “ आप धीरज रक्खेंगे तो आपको और अधिक बातें मालूम होंगी । क्या आपको कुछ पता है कि अभी अहमदाबादमें क्या चल रहा है ? अमृतसरमें