ढलती उम्रमें ऐसा नश्तर लगवानेकी सलाह उन्होंने न दी। दवाओंकी बीसों बोतलें खपीं, पर व्यर्थ गईं और नश्तर भी नहीं लगाया गया। वैद्यराज थे तो काबिल और नामांकित; पर मेरा खयाल हैं कि यदि उन्होंने नश्तर लगाने दिया होता तो घावके अच्छा होनेमें कोई दिक्कत न आती। आपरेशन बंबईके तत्कालीन प्रसिद्ध सर्जनके द्वारा होनेवाला था। पर अंत नजदीक आ गया था, इसलिए ठीक बात उस समय कैसे सूझ सकती थी? पिताजी बंबईसे बिना नश्तर लगाये वापस लौटे और नश्तर-संबंधी खरीदा हुआ सामान उनके साथ आया। अब उन्होंने अधिक जीनेकी आशा छोड़ दी थी। कमजोरी बढ़ती गई और हर क्रिया बिछौनेमें ही करने की नौबत आ गई। परंतु उन्होंने अंततक उसे स्वीकार न किया और उठने-बैठने का कष्ट उठाना मंजूर किया। वैष्णव-धर्मका यह कठिन शासन है। उसमें बाह्य-शुद्धि अति आवश्यक है। परंतु पाश्चात्य वैद्यक-शास्त्र हमें सिखाता है कि मल-त्याग तथा स्नान आदिकी समस्त क्रियायें पूरी-पूरी स्वच्छताके साथ बिछौने में हो सकती हैं और फिर भी रोगी को कष्ट नहीं उठाना पड़ता। जब देखिए तब बिछौना स्वच्छ ही रहता है। ऐसी स्वच्छताको मैं तो वैष्णव-धर्म के अनुकूल ही मानता हूं । परंतु इस समय पिताजी का स्नानादिके लिए बिछौनेको छोड़नेका आग्रह देखकर मैं तो आश्चर्य-चकित रहता और मनमें उनकी स्तुति किया करता।
अवसानकी घोर रात्रि नजदीक आई। इस समय मेरे चाचाजी राजकोटमें थे। मुझे कुछ ऐसा याद पड़ता है कि पिताजीकी बीमारी बढ़नेके समाचार सुनकर वह आ गये थे। दोनों भाइयोंमें प्रगाढ़ प्रेम-भाव था। चाचाजी दिनभर पिताजीके बिछौनेके पास ही बैठे रहते और हम सबको सोनेके लिए रवाना करके खुद पिताजीके बिछौने के पास सोते। किसीको यह खयालतक न था कि यह रात आखिरी साबित होगी। भय तो सदा रहा ही करता था। रातके साढ़े दस या ग्यारह बजे होंगे। मैं पैर दबा रहा था। चाचाजीने मुझसे कहा-"अब तुम जाकर सोओ, मैं बैठूंगा।" मैं खुश हुआ और सीधा शयन-गृहमें चला गया। पत्नी बेचारी भर-नींदमें थी। पर मैं उसे क्यों सोने देने लगा? जगाया। पांच-सात ही मिनिट हुए होंगे कि नौकरने दरवाजा खटकाया।
मैं चौंका! उसने कहा-"उठो, पिताजीकी हालत बहुत खराब है।"