पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय ३२ : वह सप्ताह !--२ हों, करनेकी अपनी तैयारी बतलाई । मैंने सार्वजनिक सभा करनेकी इजाजत मांगी व सभा आश्रम मैदानमें करनेकी अपनी इच्छा प्रकट की । यह बात उन्हें पसंद आई । मुझे याद है कि इसके अनुसार १३ मईको रविवारके दिन सभा हुई थी । मार्शल-लॉ भी उसी दिन या उसके दूसरे दिन रद्द हो गया था । इस सभामें मैंने, लोगोंको उनकी गलतियां बतानेका प्रयत्न किय । मैने प्रायश्चित्त के रूप में तीन दिनका उपवास किया और लोगोंको एक दिनका उपवास करनेकी सलाह दी । जो खून वगैरामें शामिल हुए हों, उन्हें अपना गुनाह कबूल कर लेनेकी सलाह दी । अपना धर्म मैंने स्पष्ट देखा । जिन मजदूरों वगैराके बीच मैंने इतना समय बिताया था, जिनकी मेने सेवा की थी, और जिनसे मैं भलेकी ही आशा रखता था, उनका हुल्लड़में शामिल होना मुझे असहा लगा और मैंने अपने आपको उनके दोषमें हिस्सेदार माना । जिस तरह लोगोंको अपना गुनाह कबूल कर लेनेकी सलाह दी, उसी प्रकार सरकारको भी उनका गुनाह माफ करनेके लिए सुझाया । मेरी बात दोनोंमेंसे किसीने नहीं सुनी । न लोगोंने अपना गुनाह कबूल किया और न सरकार ने उन्हें माफ ही किया । स्व० सर रमणभाई वगैरा, अहमदाबांदके नागरिक, मेरे पास आये और सत्याग्रह मुल्तवी रखनेका मुझसे अनुरोध किया । मुझे तो इसकी जरूरत भी न रही थी । जबतक लोग शांतिका पाठ न सीख लें, तबतक सत्याग्रहकी मुल्तवी रखनेका निशचय मैने कर ही लिया था । इससे वे प्रसन्न हुए । कितने ही मित्र नाराज भी हुए । उन्हें ऐसा जान पड़ा कि अगर मैं सर्वत्र शांतिकी आशा रक्खू और यही सत्याग्रहकी शर्त हो, तो फिर बड़े पैमानेपर सत्याग्रह कभी चल ही न सकेगा । मैंने इससे अपना मतभेद प्रकट किया । जिन लोगोंमें हमने काम किया हो, जिनके द्वारा सत्याग्रह चलानेकी हमने आशा रक्खी हो, वे अगर शांतिका पालन न करें तो सत्याग्रह जरूर ही नहीं चल सकता । मेरी दलील यह थी कि इतनी मर्यादित शांतिका पालन करनेकी शक्ति सत्याग्रही नेताओंको पैदा करनी चाहिए । इन विचारोंको में आज भी नहीं बदल सका हूं ।