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पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४९३

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अल-कथा : भाग ५ नवजीवन' और 'यंग इंडिया एक ओर यह धीमी किंतु शांति-रक्षक हलचल' चल रही थी तो उधर दूसरी ओर सरकारकी दमन-नीति बड़े बेगसे चल रही थी । पंजाबमें उसका असर प्रत्यक्ष देखा गया। वहां फौजी-कानून यानी जो-हुक्मी शुरू हुई । नेताको पकड़ा। खास अदालतें अदालतें न रहीं, किंतु एक सुबाका हुक्म बजानेवाली संस्था बन गई। उन्होंने बिला सबूत ही सजायें ठोंक दीं। फौजी सिपाहियोंने निर्दोष लोगों को कीड़ोंकी तरह पेटके बल रेंगाया। इसके आगे तो मेरे सामने जलियांवाला बागके कत्लेआमकी कोई बिसात ही न थी। हालांकि जनताका तथा दुनियाका ध्यान उस कत्लने ही खींचा था । पंजाबमें चाहे जिस तरह हो, मगर प्रवेश करनेका दबाव मुझपर डाला गया । मैंने बाइसरायको पत्र लिखे, तार किये; किंतु इजाजत न मिली । इजाजत के बिना चला जाऊं तो अंदर तो जा ही नहीं सकता था। हां, सविनयं-भंग करनेका संतोष अलबत्ता मिल जाता। अब यह प्रश्न मेरे सामने आ खड़ा हुआ कि इस धर्म-संकटमें मुझे क्या करना चाहिए ? मुझे लगा कि अगर मैं मनाही हुक्मका अनादर करके प्रवेश करू तो यह सविनय अनादर नहीं समझा जायगा । शांतिकी जिस प्रतीतिकी मैं इच्छा करता था, वह मुझे अबतक नहीं हो रही थी । पंजाबकी नादिरशाहींने लोगोंकी अशांतिवृत्तिको वढ़ा दिया था। मुझे ऐसा लगा कि ऐसे समयमें मेरा कानून-भंग गमें घी डालनेके समान होगा । और मैंने सहसा पंजाबमें प्रवेश करनेकी सूचना नहीं मानी । यह निर्णय मेरे लिए एक कडुई घंट थी। रोज पंजाबसे अन्यायकी खबरें आतीं और रोज मुझे उन्हें सुनना, और दांत पीसकर बैठ रहना पड़ता था । इतनेमें प्रजाको सोता छोड़कर सरकार मि० हानिमैनको चुरा ले गई। मि०' हानिमैने ‘बंबई क्रानिकलको एक प्रचंड-शक्ति वना दिया था। इस चोरीमें । जो गंदगी थी उसकी बदबू मुझे अबतक आया करती है। मैं जानता हूं कि मि हानमैन अंधाधुंधी नहीं चाहते थे। मैंने सत्याग्रह कमिटी की सलाहके बिना ही