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अनुवादककी ओरसे

(प्रथम संस्करण)

यह मेरा अहोभाग्यहै कि महात्माजीकी 'आत्मकथा' के हिन्दी अनुवादका अवसर मुझे मिला। 'नवजीवन'में आत्म-कथाके प्रकाशित होनेके पहले ही मैं ‘हिन्दी-नवजीवन'को छोड़कर, महात्माजीकी आज्ञासे, राजस्थानमें काम करने के लिए आ चुका था। मेरे बाद कई भाइयोंके हाथोंमें 'हिन्दी-नवजीवन' का काम रहा और आत्मकथाका अनुवाद भी उसमें कई मित्रों द्वारा हुआ। अतएव उसमें भाषा-शैलीका एक-सा न रहना स्वाभाविक था। परन्तु उसे पुस्तक-रूपमें प्रकाशित करने के लिए यह आवश्यक समझा गया कि अनुवाद किसी एक व्यक्तिसे कराया जाय। यह निर्णय होते ही मैंने भूखे भिखारीकी तरह, झपट कर, अनुवादका भार अपने सिरपर ले लिया। सचमुच, वह दिन मेरे बड़े सद्भाग्यका दिन था।

अनुवाद मैंने गुजरातीसे किया। मूल कथा महात्माजी गुजराती में ही लिख रहे हैं। अंग्रेजी अनुवादमें बहुत स्वतंत्रता ली गई है। अतएव अंग्रेजीसे हिंदी उल्था करनेमें हिंदी अनुवाद मूल गुजरातीसे बहुत दूर जा पड़ता। महात्माजी गुजरातीमें बड़े थोड़ेमें, और बहुत खूबीसे, अपने हृदयके गूढ़ भावोंको व्यक्त कर देते हैं। उनका अनुवाद करना, कई बार बड़ा कठिन हो जाता है। भावको विशद करने जाते हैं तो भाषा-सौंदर्य नहीं निभ पाता और भाषा-सौंदर्यपर ध्यान देने लगते हैं तो भावमें गड़बड़ी पड़ने लगती है। मैंने कहीं-कहीं भाषाके किंचित् अटपटेपनको स्वीकार करके भी महात्माजीकी मार्मिक वाक्य-रचनाको कायम रखने की कोशिश की है। पाठक महात्माजीके ऐसे वाक्योंको 'आर्ष' वाक्य ही समझ लें। दूसरे हिंदीभाषा ज्यों-ज्यों राष्ट्र भाषाकी योग्यता और श्रेष्ठताको पहुंचती जायगी त्यों-त्यों उसका 'परदेकी बीबी' बनी रहना असम्भव होता जायगा। उसे गुजराती, मराठी, बंगाली आदि के सुंदर और मार्मिक शब्द-प्रयोगोंको अपनाकर अपना भंडार भरे बिना गुजर नहीं। इस दृष्टिसे तो इस अनुवादके ऐसे शब्द-प्रयोग मेरी रायमें केवल क्षम्य ही नहीं, स्वागत-योग्य भी हैं।