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अध्याय ३७ : अमृतसर-काँग्रेस ४८७


इस स्थितिमें मालवीयजी के साथ रोज संवाद हुआ करता था और वह मुझे सब पक्षोंकी बातें उस तरह प्रेमपूर्वक समझाते, जैसा कि बड़ा भाई छोटेको समझाता है । मुझे यह जान पड़ा कि सुधार-संबंधी प्रस्तावमें मुझे भाग लेना चाहिए ! पंजाब हत्याकांड संबंधी कांग्रेसकी रिपोर्ट की जिम्मेदारी में मेरा हाथ था ही । पंजाबके संबंधमें सरकारसे काम भी लेना' था । खिलाफत का मामला था ही। यह भी मेरी धारणा थी कि मांटेगू हिंदुस्तानके साथ दगा नहीं होने देंगे । कैदियोंके और उसमें भी अली-भाइयोंके छुटकारेको मैंने शुभ चिह्न माना था। इसलिए मैंने सोचा कि सुधारोंको स्वीकार करनेका प्रस्ताव होना चाहिए। किंतु चित्तरंजन दासकी मजबूत राय थीं कि सुधारोंको बिलकुल असंतोषजनक और अधूरा मान उनको रद कर देना चाहिए। लोकमान्य कुछ तटस्थ थे; परंतु देशबंधु जिस प्रस्तावको पसंद करें उसके पक्षमें अपनी शक्ति लगानेका निश्चय उन्होंने किया था ।

ऐसे भुक्तभोगी सर्वमान्य लोकनायकोंसे मेरा मतभेद मुझे असह्य हो रहा था। दूसरी ओर मेरा अन्तर्नाद स्पष्ट था। मैंने कांग्रेसके अधिवेशन से भाग जानेका प्रयत्न किया। पंडित मोतीलालजी नेहरू और मालवीयजीको मैने सुझाया कि मुझे अधिवेशनमें गैरहाजिर रहने देने से सब काम सध जायंगे और मैं महान् नेताओंके इस मतभेदसे भी बच जाऊंगा ।

पर यह बात इन दोनों बुजुर्गों को न पटीं । लाला हरकिशनलालके कानपर बात आते हीं उन्होंने कहा- “ यह कभी नहीं हो सकता । पंजाबियों को इससे बड़ी चोट पहुंचेगी।' लोकमान्य और देशबंधु के साथ मशवरा किया ।श्री जिनासे भी मिला। किसी तरह कोई रास्ता नहीं निकला। मैंने अपनी वेदना मालवीयजी के सामने रक्खी।

“समझौतेके असार मुझे नहीं दिखाई देते; यदि मुझे अपना प्रस्ताव पेश करना ही पड़े तो अंतको मत तो लेने हीं पड़ेगे । मत लिये जाने की सुविधा यहां मुझे दिखाई नहीं देती। आजतक भरी सभामें हम लोग हाथ हीं ऊंचे उठवाते आये हैं। दर्शकों और सदस्योंका भेद हाथ ऊंचा करते समय नहीं रहता। ऐसी विशाल सभामें मत गिनने की सुविधा हमारे यहां नहीं होती, इसलिए यदि मैं अपने प्रस्तावके संबंध मत लिवाना चाहूं भी तो उसका प्रबंध नहीं ।” मैंने कहा।