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अध्याय ३८ : कांग्रेसमें प्रवेश ४८९

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कांग्रेसमें प्रवेश

कांग्रेसमें यह जो मुझे भाग लेना पड़ा, इसे मैं कांग्रेस में अपना प्रवेश नहीं मानता । उसके पहलेकी कांग्रेसकी बैठकों में गया सो तो केवल वफादारीकी निशान के तौरपर । एक छोटे-से-छोटे सिपाहीके सिवा वहां मेरा दूसरा काम कुछ होगा, ऐसा आभास मुझे दूसरी पिछली सभाशोंके संबंधमें नहीं हुआ और न ऐसी इच्छा ही हुई है।

किंतु अमृतसरके अनुभवने बताया कि मेरी एक शक्तिका उपयोग कांग्रेस- के लिए है । पंजाब-समितिके मेरे कामसे लोकमान्य, मालवीयजी, मोतीलालजी, देशबंधु इत्यादि खुश हुए थे, यह मैंने देख लिया था। इस कारण उन्होंने मुझे अपनी बैठकों में और सलाह-मशवरेमें बुलाया । इतना तो मैंने देखा कि था विषय-समितिका सच्चा काम ऐसी बैठकोंमें होता था और ऐसे मशवरोंमें खासकर वे लोग होते, जिनपर नेताओंका खास विश्वास या आधार होता; पर दूसरे लोग भी किसी-न-किसी बहाने घुस जाया करते ।

आगामी वर्ष किये जानेवाले दो कामोंमें मेरी दिलचस्पी थी; क्योंकि उनमें मेरा चंचुपात हो गया था ।

एक था जलियांवालाबागके कत्लका स्मारक। इसके लिए कांग्रेसने बड़ी शानके साथ प्रस्ताव पास किया था। उसके लिए कोई पांच लाख रुपयेकी रकम एकत्र करनी थी । उसके ट्रस्टियोंमें मेरा भी नाम था । देशके सार्वजनिक कार्योके लिए भिक्षा मांगनेकी भारी सामर्थ्य जिन लोगोंमें हैं, उनमें मालवीयजी- का नंबर पहला था और है । मैं जानता था कि मेरा दर्जा उनसे बहुत घटकर न होगा । अपनी इस शक्तिका आभास मुझे दक्षिण अफ्रीकामें मिला था । राजा-महाराजाओपर, जादू फेरकर लाखों रुपये पानेका सामर्थ्य मुझमें न था, न आज भी है। इस बातमें मालवीयजीके साथ प्रतिस्पर्धा करनेवाला मैंने किसी को नहीं देखा; पर जलियांवालाबागके काम में उन लोगों से द्रव्य नहीं लिया जा सकता, यह मैं जानता था । अतएव इस स्मारकके लिए धन जुटानेका मुख्य भार मुझपर