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४९० आत्म-कथा : भाग ५

पड़ेगा, यह बात मैं ट्रस्टीका पद स्वीकार करते समय समझ गया था । और हुआ भी ऐसा ही । इस स्मारकके लिए बंबईके उदार नागरिकोंने पेट-भरके द्रव्य दिया और आज भी लोगोंके पास उसके लिए जितना चाहिए, रुपया है; परंतु इसे हिंदू, मुसलमान और सिक्खके मिश्रित खूनसे पवित्र हुई भूमिपर किस तरहका स्मारक बनाया जाय, अर्थात् आये हुए धनका उपयोग किस तरह किया जाय, यह विकट प्रश्न हो गया है; क्योंकि तीनोंके बीच अथवा दोके बीच दोस्तीके बदले आज दुश्मनीका भास हो रहा है ।

मेरी दूसरी शक्ति मसवदे तैयार करने की थी, जिसका उपयोग कांग्रेसके लिए हो सकता था ! बहुत दिनोंके अनुभवसे कहां, कैसे और कितने कम शब्दोंमें अविनय-रहित भाषा लिखना मैं सीख गया हूं- यह बात नेता लोग समझ गये थे। उस समय कांग्रेसका जो विधान था, वह गोखलेकी दी हुई पूंजी थी। उन्होंने कितने ही नियम बना रखे थे, जिनके आधारपर कांग्रेसका काम चलता था । ये नियम किस प्रकार बने, इसका मधुर इतिहास मैंने उन्हींके मुखसे सुना था । पर अब सब यह मानते थे कि केवल उन्हीं नियमोंके बलपर काम नहीं चल सकता । विधान बनाने की चर्चा भी प्रतिवर्ष चला करता । कांग्रेसके पास ऐसी व्यवस्था ही नहीं थी कि जिससे सारे वर्ष-भर उसका काम चलता रहे अथवा भविष्यके विषयमें कोई विचार करे। यों मंत्री उसके तीन रहते; पर कार्यवाहक मंत्री तो एक ही होता । अब यह एक मंत्री दफ्तरका काम करता या भविष्यका विचार करता, या भूतकालमें ली हुई जिम्मेदारियां चालू वर्षमें अदा करता ? इसलिए यह प्रश्न इस वर्ष सबकी दृष्टिमें अधिक आवश्यक हो गया । कांग्रेसमें तो हजारोंकी भीड़ होती है, वहां प्रजाका कार्य कैसे चलता ? प्रतिनिधियोंकी संख्याकी हद नहीं थी। हर किसी प्रान्तसे जितने चाहें-प्रतिनिधि-आ-सकते थे । हर कोई प्रतिनिधि हो सकता था। इसलिए इसका कुछ प्रबंध होनेकी आवश्यकता सबको मालूम हुई। विधानकी रचना करनेका भार मैंने अपने सिरपर लिया। किंतु भेरी एक शर्त थीं । जुन पर मैं दो नेताका अधिकार देख रहा था. इसलिए मैंने उनके प्रतिनिधिकी मांग अपने साथ की । मैं जानता था कि नेता लोग खुद शांति के साथ बैठकर विधानकी रचना नहीं करते थे । अतएब लोकमान्य तथा देशबंधुके पाससे उनके दो विश्वासपात्र नाम मैंने मांगे । इनके अतिरिक्त