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अध्याय ३६ : खादीका जन्म

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दूसरा कोई संगठन-समितिमें न होना चाहिए, यह मैंने सुझाया । यह सूचना स्वीकृत हुई। लोकमान्यने श्री केलकरका और देशबंधुने श्री आई० बी० सेनका नाम दिया। यह विधान-समिति एक दिन भी साथ मिलकर न बैठीं । फिर भी हमने अपना कार्य चला लिया। इस विधानके संबंध में मुझे कुछ अभिमान है । मैं मानता हूं कि इसके अनुसार काम लिया जा सके तो आज हमारा बेड़ा पार हो सकता है । यह तो जब कभी हो; परंतु मैं मानता हूं कि इस जवाबदेही को लेने के बाद ही मैंने कांग्रेस में सचमुच प्रवेश किया ।

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खादीका जन्म

मुझे याद नहीं कि सन १९०८ तक मैंने चरखा अथवा करघा देखा हो । फिर भी मैंने ‘हिद-स्वराज्य में यह माना है कि चरखे द्वारा भारतकी गरीबी । मिटेगी। और जिस मार्ग से देशको भुखमरी मिटेगी उससे स्वराज्य भी मिलेगा। यह तो एक ऐसी बात है कि जिसे सब कोई समझ सकते हैं। जब मैं सन् १९१५ में दक्षिण अफ्रिकासे भारत आया, उस समय भी मैने चरखाके दर्शन नहीं किये थे । आश्रम खोलनेपर एक करघा ला रक्खा । करघा ला रखनेमें भी मुझे बड़ी कठिनाई हुई। हम सब उसके प्रयोगसे अपरिचित थे, अत: करघा प्राप्त कर लेने भरसे वह चल तो नहीं सकता था । हममें था तो कलम चलानेवाले इकट्ठे हुए थे, या व्यापार करना जाननेवाले थे; कारीगर कोई भी नहीं था। इसलिए करघा मिल जानेपर भी बताईका काम सिखानेवाले की जरूरत थी । काठियावाड़ और पालनपुरसे करघा मिला और एक सिखानेवाला भी आगया। पर उसने अपना सारा हुनर नहीं बताया; लेकिन मगनलाल गांधी ऐसे नहीं थे कि हाथमें लिये हुए कामको झट छोड़ दें। उनके हाथमें कारीगरी तो थी ही, अतः उन्होंने बनाईका काम पूरी तरह जान लिया और फिर एक-के-बाद-एक नये बुनकर आश्रम- में तैयार हो गये ।

हमें तो अपने कपड़े तैयार करके पहनने थे। इसलिए अबसे मिलके