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अध्याय १० : धर्मकी झलक

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धर्मकी झलक

छः-सात सालकी उम्रसे लेकर १६ वर्षतक विद्याध्ययन किया; परंतु स्कूलमें कहीं धर्म-शिक्षा न मिली। जो चीज शिक्षकोंके पाससे सहज ही मिलनी चाहिए, वह न मिली। फिर भी वायुमंडलमेंसे तो कुछ-न-कुछ धर्म-प्रेरणा मिला ही करती थी। यहां धर्मका व्यापक अर्थ करना चाहिए। धर्मसे मेरा अभिप्राय है आत्मभानसे, आत्मज्ञानसे।

वैष्णव-संप्रदायमें जन्म होने के कारण बार-बार 'वैष्णव-मंदिर' जाना होता था। परंतु उसके प्रति श्रद्धा न उत्पन्न हुई। मंदिरका वैभव मुझे पसंद न आया। मंदिरोंमें होनेवाले अनाचारोंकी बातें सुन-सुनकर मेरा मन उनके संबंधमें उदासीन हो गया। वहांसे मुझे कोई लाभ न मिला।

परंतु जो चीज मुझे इस मंदिरसे न मिली, वह अपनी दाईके पाससे मिल गई। वह हमारे कुटुंबमें एक पुरानी नौकरानी थी। उसका प्रेम मुझे आज भी याद आता है। मैं पहले कह चुका हूं कि मैं भूत-प्रेत आदिसे डरा करता था। इस रंभाने मुझे बताया कि इसकी दवा 'राम-नाम' है। किंतु राम-नामकी अपेक्षा रंभापर मेरी अधिक श्रद्धा थी। इसलिए बचपनमें मैंने भूत-प्रेतादिसे बचनेके लिए राम-नामका जप शुरू किया। यह सिलसिला यों बहुत दिनतक जारी न रहा; परंतु जो बीजारोपण बचपनमें हुआ वह व्यर्थ न गया। राम-नाम जो आज मेरे लिए एक अमोघ शक्ति हो गया है, उसका कारण यह रंभाबाई का बोया हुआ बीज ही है।

मेरे चचेरे भाई रामायणके भक्त थे। इसी अर्सेमें उन्होंने हम दो भाइयोंको 'राम-रक्षा' का पाठ सिखानेका प्रबंध किया। हमने उसे मुखाग्र करके प्रात:काल स्नानके बाद पाठ करनेका नियम बनाया। जबतक पोरबंदरमें रहे, तबतक तो यह निभता रहा। परंतु राजकोटके वातावरणमें उसमें शिथिलता आ गई।