पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/५११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

४९४ आत्म-कथा : भाग ५

सीमा थी । पूनियां खरीदकर लेने में मुझे संकोच हुआ। और मिलकी पूनियां लेकर कातने में मुझे बहुत दोष प्रतीत हुआ। अगर मिलकी पूनियां लेते हैं तो फिर सूत लेने में क्या बुराई है ? हमारे पुरखाओंके पास मिलकी पूनियां कहां थीं ? किस तरह पूनियां तैयार करते होंगे ? मैंने गंगाबहनको सुझाया कि वह पूनियां बनानेवाले को ढूंढ़े । उन्होंने यह काम अपने सिर लिया । एक पिंजारेको ढूंढ निकाला। उसे हर महीने ३५) या इससे भी अधिक वेतनपर नियुक्त किया । उसीने बालकोंको पून बनाना सिखलाया। मैंने रुईकी भीख मांगी । भाई यशवंतप्रसाद देशाईने रुईकी गांठे पहुंचानेका काम अपने जिम्मे लिया । अब गंगाबहनने काम एकदम बढ़ा दिया । उन्होंने बुनकरोंको आबाद किया और कते हुए सुतको बुनवाना शुरू किया । अब तो बीजापुरकी खादी मशहूर हो गई ।

दूसरी ओर अब आश्रममें भी चरखा दाखिल करनेमें देर न लगी । मगनलाल गांधी ने अपनी शोधक शक्तिसे चरखे में सुधार किये और चरखे तथा तकले आश्रममें तैयार हुए। आश्रमकी खादी के पहले थानपर फी गज १) खर्च आया। मैंने मित्रोंके पास मोटी, कच्चे सूतक खाद के एक गज टुकड्के १) बसूल किये, जो उन्होंने खुशी-खुशी दिये ।

बंबईमें मैं रोग शैय्यापर पड़ा हुआ था; लेकिन सबसे पूछा करता। वहां दो कातनेवाली बहनें मिलीं। उन्हें एक सेर सूतपर एक रुपया दिया। मैं अभीतक खादीशास्त्रमें अंधे जैसा था । मुझे तो हाथ-कता सुत चाहिए था और कातनेवाली स्त्रियां चाहिए थीं । गंगाबहन जो दर देती थीं उससे तुलना करते हुए मुझे मालूम हुआ कि मैं ठगा जा रहा हूं। वे बहुत कम लेनेको तैयार न थीं, इसलिए उन्हें छोड़ देना पड़ा; लेकिन उनका उपयोग तो था ही। उन्होंने श्री अवंतिकाबाई, रमाबाई कामदार, श्री शंकरलाल बैंकर की माताजी और श्री वसुमती बहनको कातना सिखाया और मेरे कमरेमें चरखा गूंज उठा। अगर मैं यह कहूं कि इस यंत्रने मुझे रोगी से निरोगी बनाने में मदद पहुंचाई, तो अत्युक्ति न होगी। यह सच है कि यह स्थिति मानसिक है । लेकिन मनुष्यको रोगी या नीरोग बनाने में मनका हिस्सा कौन कम है ? मैंने भी चरखेको हाथ लगाया; लेकिन इस समय मैं इससे आगे नहीं बढ़ सका था ।

अब सवाल यह उठा कि यहां हाथकी पूनियां कहांसे मिलें ? श्री रेवाशंकर