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अध्याय ११ : विलायतकी तैयारी


देखना चाहता हूं। तभी तुम्हारे विशाल कुटुंबका काम चल सकता है। जमाना दिन-दिन बदलता जाता है और मुश्किल होता जाता है, इसलिए बैरिस्टर बनाना ही बुद्धिमानी है।"

माताजीकी ओर देखकर कहा-"आज तो मैं जाता हूं। मेरी बातपर विचार कीजिएगा। वापस आनेपर मैं विलायत जानेकी तैयारीके समाचार सुननेकी आशा रक्खूंगा। कोई दिक्कत हो तो मुझे खबर कीजिएगा।"

जोशीजी गये। इधर मैंने हवाई किले बांधना शुरू किये।

बड़े भाई शशोपंजमें पड़ गये। रुपयेका क्या इंतजाम करें? फिर मुझ जैसे नौजवानको इतनी दूर कैसे भेज दें?

माताजी भी बड़ी दुविधामें पड़ गईं। दूर भेजने की बात तो उन्हें अच्छी न लगी। परंतु शुरूमें तो उन्होंने यही कहा-"हमारे कुटुंबमें तो अब चाचाजी ही बड़े-बूढ़े हैं। इसलिए पहले तो उन्हींकी सलाह लेनी चाहिए। यदि वह इजाजत दे दें तो फिर सोचेंगे।"

बड़े भाईको एक और विचार सूझा- "पोरबंदर राज्यपर हमारा हक है। लेली साहब एडमिनिस्ट्रेटर हैं। हमारे परिवारके संबंधमें उनका अच्छा मत है। चाचाजीपर उनकी खास मेहरबानी है। शायद वह राज्यकी ओरसे तुम्हारी थोड़ी-बहुत मदद भी करदें।"

मुझे यह सब पसंद आया। मैं पोरबंदर जानेके लिए तैयार हुआ। उस समय रेल न थी। बैल-गाड़ियां चलती थीं। ५ दिनका रास्ता था। मैं स्वभावसे डरपोक था, यह तो ऊपर कह चुका हूं। पर इस समय मेरा डर न जाने कहां चला गया। विलायत जानेकी धुन सवार हुई। मैंने धाराजी तककी गाड़ी की। धोराजीसे एक दिन पहले पहुंचनेके इरादेसे ऊंट किया। ऊंटकी सवारीका यह पहला अनुभव था।

पोरबंदर पहुंचा। चाचाजीको साष्टांग प्रणाम किया। सारा किस्सा उनसे कहा। उन्होंने विचार करके उत्तर दिया-

"विलायत जाकर अपना धर्म कायम रख सकोगे कि नहीं, यह मैं नहीं जानता। सारी बातें सुनकर तो मुझे संदेह ही होता है। देखो न, बड़े-बड़े बैरिस्टरोंसे मिलनेका मुझे मौका मिलता है। मैं देखता हूं कि उनकी और साहब