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आत्म-कथा : भाग १


वहां मित्रोंने भाईसे कहा कि जून-जुलाई में हिंद महासागरमें तूफान रहता है। यह पहली बार समुद्र-यात्रा कर रहा है, इसलिए दिवालीके बाद अर्थात् नवंबर में इसको भेजना चाहिए। इतनेमें ही किसीने तूफानमें किसी जहाजके डूब जानेकी बात भी कह डाली। इससे बड़े भाई चिंतित हो गये। उन्होंने मुझे ऐसी जोखिम उठाकर उस समय भेजनेसे इन्कार कर दिया, और वहीं अपने एक मित्रके यहां मुझे छोड़कर खुद अपनी नौकरीपर राजकोट चले गये। अपने एक बहनोईके पास रुपये-पैसे रख गये और कुछ मित्रोंसे मेरी मदद करनेको भी कहते गये।

बंबईमें मेरा पड़ाव लंबा हो गया। वहां मुझे दिन-रात विलायतके ही सपने आते।

इसी बीच हमारी जातिमें खलबली मची। पंचायत इकट्ठी हुई। मोढ़ बनियोंमें अबतक कोई विलायत नहीं गया था और उन लोगोंका कहना था कि यदि मैं ऐसा साहस करता हूं तो मुझसे जवाब तलब होना चाहिए। मुझे जातिकी पंचायतमें हाजिर होनेका हुक्म हुआ। मैं गया। ईश्वर जाने मुझे एकाएक यह हिम्मत कहांसे आई। वहां जाते हुए न संकोच हुआ, न डर। जातिके मुखियाके साथ दूरका कुछ रिश्ता भी था, पिताजीके साथ उनका अच्छा संबंध था। उन्होंने मुझसे कहा-

"पंचोंका यह मत है कि तुम्हारा विलायत जानेका विचार ठीक नहीं है। अपने धर्ममें समुद्र-यात्रा मना है। फिर हमने सुना है कि विलायतमें धर्मका पालन नहीं हो सकता। वहां अंग्रेजोंके साथ खाना-पीना पड़ता है।"

मैने उत्तर दिया, "मैं तो समझता हूं, विलायत जाना किसी तरह अधर्म नहीं। मुझे तो वहां जाकर सिर्फ विद्याध्ययन ही करना है। फिर जिन बातों का भय आपको है उनसे दूर रहनेकी प्रतिज्ञा मैंने माताजीके सामने ले ली है और मैं उनसे दूर रह सकूंगा।"

"पर हम तुमसे कहते हैं कि वहां धर्म कायम नहीं रह सकता। तुम जानते हो कि तुम्हारे पिताजीके साथ मेरा कैसा संबंध था, तुम्हें मेरा कहना मान लेना चाहिए," मुखिया बोले।

"जी, आपका संबंध मुझे याद है। आप मेरे लिए पिताके समान हैं। परंतु इस बातमें मैं लाचार हूं। विलायत जानेका निश्चय मैं नहीं पलट सकता।