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आत्म-कथा : भाग १


मित्रने साज-सामान तैयार करवाया। मुझे वह सब बड़ा विचित्र मालूम हुआ। कुछ बातें अच्छी लगीं, कुछ बिलकुल नहीं। नेकटाई तो बिलकुल अच्छी न लगी- हालांकि आगे जाकर मैं उसे बड़े शौकसे पहनने लगा था। छोटा-सा जाकेट नंगा पहनावा मालूम हुआ। परंतु विलायत जानेकी धुनमें इस नापसंदीके लिए जगह नहीं थी। साथमें खानेका सामान भी काफी बांध लिया था।

मेरे लिए स्थान भी मित्रोंने त्रंबकराय मजूमदार (जूनागढ़वाले वकील) की केबिनमें रिजर्व कराया। उनसे मेरे लिए उन्होंने कह भी दिया। वह तो थे अधेड़, अनुभवी आदमी। मैं ठहरा अठारह बरसका नौजवान, दुनियाके अनुभवोंसे बेखबर। मजूमदारने मित्रोंको मेरी तरफसे निश्चिंत रहनेका आश्वासन दिया।

इस तरह ४ सितंबर १८८८ ई० को मैंने बंबई बंदर छोड़ा।


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आखिर विलायतमें

जहाजमें समुद्रसे मुझे कोई तकलीफ न हुई। पर ज्यों-ज्यों दिन जाते, मैं असमंजसमें पड़ता चला। स्टुअर्टके साथ बोलते हुए झेंपता। अंग्रेजीमें बातचीत करनेकी आदत न थी। मजूमदारको छोड़कर बाकी सब यात्री अंग्रेज थे। उनके सामने बोलते न बनता था। वे मुझसे बोलनेकी चेष्टा करते तो उनकी बातें मेरी समझ में न आतीं और यदि समझ भी लेता तो यह औसान नहीं रहता कि जबाव क्या दूं। हर वाक्य बोलनेसे पहले मनमें जमाना पड़ता था। छुरी-कांटेसे खाना जानता न था। और वह पूछनेकी भी जुर्रत न होती कि इसमें बिना मांसकी चीजें क्या-क्या हैं? इस कारण मैं भोजनकी मेजपर तो कभी गया ही नहीं; केबिन- कमरे- में ही खा लेता। अपने साथ मिठाइयां वगैरा ले रक्खी थीं- प्रधानतः उन्हींपर गुजर करता रहा। मजूमदारको तो किसी प्रकारका संकोच न था। वह सबके साथ हिलमिल गये। डेकपर भी जहां जी चाहा घूमने फिरते। मैं सारा दिन केबिनमें घुसा रहता। डेकपर जब लोगोंकी भीड़ कम देखता, तब कहीं जाकर वहां बैठ जाता। मजूमदार मुझे समझाते कि सबके साथ मिला-जुला करो और कहते- वकील जबांदराज होना चाहिए। वकीलकी