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आत्म-कथा : भाग १

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मेरी पसंदगी

डाक्टर मेहता सोमवारको विक्टोरिया होटलमें मुझसे मिलने गये। वहां उन्हें हमारे नये मकानका पता लगा। वह वहां आये। मेरी बेवकूफीसे जहाजमें मुझे दाद हो गई थी। जहाजमें खारे पानीसे नहाना पड़ता। उसमें साबुन घुलता नहीं। इधर मैं साबुनसे नहानेमें सभ्यता समझता था। इसलिए शरीर साफ होनेके बदले उलटा चिकटा हो गया और मुझे दाद पैदा हो गई। डाक्टरने तेजाब-सा एसिटिक-एसिड दिया, जिसने मुझे रुलाकर छोड़ा। डाक्टर मेहताने हमारे कमरे आदिको देखकर सिर हिलाया व कहा- "यह मकान कामका नहीं। इस देशमें आकर महज पुस्तकें पढ़नेकी अपेक्षा यहांका अनुभव प्राप्त करना ज्यादा जरूरी है। इसके लिए किसी कुटुंबमें रहने की जरूरत है। पर फिलहाल कुछ बातें सीखनेके लिए . . . के यहां रहना ठीक होगा। मैं तुमको उनके यहां ले चलूंगा।"

मैंने सधन्यवाद उनकी बात मान ली। उन मित्रके यहां गया। उन्होंने मेरी खातिर-तवाजोमें किसी बातकी कसर न रक्खी। मुझे अपने सगे भाईकी तरह रक्खा, अंग्रेजी रस्म-रिवाज सिखाये। अंग्रेजीमें कुछ बातचीत करनेकी टेव भी उन्होंने मुझे डाली।

पर मेरे भोजनका सवाल बड़ा विकट हो पड़ा। बिना नमक, मिर्च, मसालेका साग भाता नहीं था। मालकिन बेचारी मेरे लिए पकाती भी क्या? सुबह ओट-मीलकी एक किस्मकी लपसी बनती, उससे कुछ पेट भर जाता, पर दोपहरको और शामको हमेशा भूखा रहता। यह मित्र मांसाहार करने के लिए रोज समझाते। पर मैं अपनी प्रतिज्ञाका नाम लेकर चुप हो रहता। उनकी दलीलोंका मुकाबला न कर सकता था। दोपहरको सिर्फ रोटी और चौलाईके साग तथा मुरब्बेपर गुजर करता। यही खाना शामको भी। मैं देखता था कि रोटीके तो दो ही तीन टुकड़े ले सकते हैं, अतः ज्यादा मांगते हुए झेंप लगती। फिर मेरा आहार भी काफी था। जठराग्नि तेज थी, और काफी आहार भी