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आत्म-कथा : भाग १


मैं तुमसे इस बात पर बहस न करूंगा।" कहकर चुप हो रहे। मैं खुश हुआ। इसके बाद उन्होंने बहस करना छोड़ दिया।

पर मेरी तरफसे उनकी चिंता दूर न हुई। वह सिगरेट पीते, शराब पीते। पर इसमेंसे एक भी बातके लिए मुझे कभी नहीं ललचाया। उलटा मना करते। पर उनकी सारी चिंता तो यह थी कि मांसाहारके बिना मैं कमजोर हो जाऊंगा और इंग्लैंडमें आजादीसे न रह सकूंगा।

इस तरह एक मास तक मैंने नौसिखियेके रूपमें उम्मीदवारी की। उन मित्रका स्थान रिचमंडमें था, इससे लंदन सप्ताहमें एक-दो बार ही जाया जाता। अब डाक्टर मेहता तथा श्री दलपतराम शुक्लने यह विचार किया कि मुझे किसी कुटुंबमें रखना चाहिए। श्री शुक्लने वेस्ट फेसिंगटनमें एक एंग्लो-इंडियनका घर खोजा, और वहां मेरा डेरा लगा। मालकिन विधवा स्त्री थी। उससे मैंने अपने मांस-त्यागकी बात कही। बुढ़ियाने मेरे लिए निरामिष भोजनका प्रबंध करना स्वीकार किया। मैं वहां रहा, पर वहां भी भूखे ही दिन बीतते। घरसे मैंने मिठाइयां आदि मंगाई तो थीं, पर वे अभी पहुंच नहीं पाई थीं। बुढ़ियाके यहांका खाना सब बे-स्वाद लगता। बुढ़िया बार-बार पूछती, पर बेचारी करती क्या, फिर मैं अभीतक शरमाता था। बुढ़ियाके दो लड़कियां थीं। वे आग्रह करके कुछ रोटी ज्यादा परोस देतीं, पर वे बेचारी क्या जानती थीं कि मेरा पेट तो तभी भर सकता था, जब उनकी सारी रोटियां सफा कर जाता।

लेकिन अब मेरे पंख फूटने लग गये थे। अभी पढ़ाई तो शुरू हुई भी नहीं। यों हीं अखबार वगैरा पढ़ने लगा था। वह हुआ शुक्लजीके बदौलत। हिंदुस्तानमें मैंने कभी अखबार नहीं पढ़ा था। परंतु निरंतर पढ़नेके अभ्याससे उन्हें पढ़नेका शौक लग गया। 'डेलीन्यूज़', 'डेली टेलीग्राफ' और 'पेलमेल गजट' इतने अखबारों पर नजर डाल लिया करता था। परंतु शुरु-शुरुमें इसमें एक घंटे से ज्यादा न लगता था।

मैंने घूमना शुरू कर दिया। मुझे निरामिष अर्थात् अन्नके भोजनवाले भोजन-गृहकी तलाश थी। मकान-मालकिनने भी कहा था कि लंदन शहरमें ऐसे गृह हैं अवश्य। मैं १०-१२ मील रोज घूमता। किसी मामूली भोजनालयमें जाकर रोटी तो पेट-भर खा लेता, पर दिल न भरता। इस तरह भटकते हुए