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अध्याय १५ : 'सभ्य' वेशमें


एक दिन मैं फेरिंग्टन स्ट्रीट पहुंचा, और 'वेजिटेरियन रेस्तरां' (निरामिष भोजनालय) नाम पढ़ा। बच्चेको मनचाही चीज मिलनेसे जो आनंद होता है, वही मुझे हुआ। हर्षोन्मत्त होकर मैं अंदर पहुंचा ही नहीं कि दरवाजेके पास कांचकी खिड़कीमें विक्रयार्थ पुस्तकें देखीं। उनमें मैंने सॉल्टकी 'अन्नाहारकी हिमायत' नामक पुस्तक देखी। एक शिलिंग देकर खरीदी और फिर भोजन करने बैठा। विलायतमें आनेके बाद यही पहला दिन था, जब मैंने पेट-भर खाना खाया। उस दिन ईश्वरने मेरी भूख बुझाई।

सॉल्टकी पुस्तक पढ़ी। मेरे दिलपर उसकी अच्छी छाप पड़ी। यह पुस्तक पढ़नेके दिनसे मैं अपनी इच्छासे, अर्थात् सोच-समझकर, अन्नाहारका कायल हुआ। माताजीके सामने की हुई प्रतिज्ञा अब मुझे विशेष आनंददायक हो गई। अब तक जो मैं यह मान रहा था कि सब लोग मांसाहारी हो जायं तो अच्छा और पहले केवल सत्यकी रक्षाके लिए और पीछेसे प्रतिज्ञा-पालनके लिए मांसाहारसे परहेज करता रहा और भविष्यमें किसी दिन आजादीसे खुलेआम मांस खाकर दूसरोंको मांस-भोजियोंकी टोलीमें शामिल करनेका हौसला रखता था, सो अबसे, उसके बजाय खुद अन्नाहारी रहकर औरोंको भी ऐसा बनानेकी धुन मेरे सिरपर सवार हुई।

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'सभ्य' वेशमें

अन्नाहारपर मेरी श्रद्धा दिन-दिन बढ़ती गई। सॉल्टकी पुस्तकने आहारविषयपर अधिक पुस्तकें पढ़नेकी उत्सुकता तीव्र कर दी। ऐसी जितनी पुस्तकें मुझे मिलीं उतनी खरीदीं और पढ़ीं। हावर्ड विलियम्सकी 'आहार-नीति' नामक पुस्तकमें भिन्न-भिन्न युगके ज्ञानियों, अवतारों, पैगंबरोंके आहारका और उससे संबंध रखनेवाले उनके विचारोंका वर्णन किया गया है। पाइथागोरस, ईसामसीह इत्यादिको उसने महज अन्नाहारी साबित करनेकी कोशिश की है। डाक्टर मिसेज एना किंग्सफर्डकी 'उत्तम आहारकी रीति' नामक पुस्तक भी चित्ताकर्षक थी। फिर आरोग्य-संबंधी डा. एलिन्सनके लेख भी ठीक मददगार