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आत्म-कथा : भाग १


रहनेकी एक और सभ्य क्रिया होती रहती थी, सो अलग।

परंतु इतनी तड़क-भड़क काफी न थी। अकेले सभ्य लिबास पहन लेनेसे थोड़े ही कोई सभ्य हो जाता है? इसलिए सभ्यताके और भी कितने ही ऊपरी लक्षण जान लिये थे। अब उनके अनुसार करना बाकी था। सभ्य पुरुषको नाचना आना चाहिए; फिर फ्रेंच भाषा ठीक-ठीक जानना चाहिए। क्योंकि फ्रेंच एक तो इंग्लैंडके पड़ोसी फ्रांसकी भाषा थी, और दूसरे सारे यूरोपकी राष्ट्रभाषा भी थी। मुझे यूरोप-भ्रमण करनेकी इच्छा थी। फिर सभ्य पुरुषको लच्छेदार व्याख्यान देनेकी कलामें भी निपुण होना चाहिए। मैंने नाचना सीख लेनेका निश्चय किया। नाचनेके एक विद्यालयमें भरती हुआ। एक सत्रकी फीस कोई तीनेक पौंड दी होगी। कोई तीन सप्ताहमें पांच-छ: पाठ पढ़े होंगे। पर ठीक-ठीक तालपर पांव नहीं पड़ता था। पियानो तो बजता था, पर यह न जान पड़ता था कि यह क्या कह रहा हैं, 'एक, दो, तीन' का क्रम चलता, पर इनके बीचका अंतर तो वह बाजा ही दिखाता था, सो कुछ समझ न पड़ता। तो अब? अब तो बाबाजीकी लंगोटीवाला किस्सा हुआ; लंगोटीको चूहोंसे बचानेके लिए बिल्ली, और बिल्लीके लिए बकरी-इस तरह बाबाजीका परिवार बढ़ा। सोचा, वायोलिन बजाना सीखलूं तो सुर और तालका ज्ञान हो जावेगा। तीन पौंड वायोलिन खरीदने में बिगड़े और उसे सीखनेके लिए भी कुछ दक्षिणा दी। व्याख्यानकला सीखनेके लिए एक और शिक्षकका घर खोजा। उसे भी एक गिन्नी भेंट की। उसकी प्रेरणासे 'स्टैंडर्ड एलोक्युशनिस्ट' खरीदा। पिटके भाषणसे श्रीगणेश हुआ।

पर, इन बेल साहबने मेरे कानमें 'बेल' (घंटा) बजाया। मैं जगा, सचेत हुआ।

मैंने कहा, "मुझें सारी जिंदगी तो इंग्लैंडमें बिताना है नहीं; लच्छेदार व्याख्यान देना सीखकर भी क्या करूंगा? नाच-नाचकर मैं सभ्य कैसे बनूंगा? वायोलिन तो देशमें भी सीख सकता हूं। फिर मै तो ठहरा विद्यार्थी। मुझे तो विद्या-धन बढ़ाना चाहिए; मुझे अपने पेशेके लिए आवश्यक तैयारी करनी चाहिए; अपने सद्व्यवहार के द्वारा यदि मैं सभ्य समझा जाऊं तो ठीक है, नहीं तो मुझे यह लोभ छोड़ देना चाहिए।"