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आत्म-कथा : भाग १

परस्त्रीको देखकर विकाराधीन होनेका और उसके साथ खेलनेकी इच्छा होनेका यह पहला प्रसंग मेरे जीवनमें था। रात-भर मुझे नींद न आई। अनेक तरहसे विचारोंने मुझे आ घेरा। 'क्या करूंं? घर छोड़ दूं? यहांसे भाग निकलूं? मैं कहां हूं? यदि मैं सावधान न रहूं तो मेरे क्या हाल होंगे?' मैंने खूब सचेत रहकर जीवन बितानेका निश्चय किया। सोचा कि घर तो अभी न छोड़ूं; पर पोर्टस्मथ तुरंत छोड़ देना चाहिए। सम्मेलन दो ही दिनतक होनेवाला था। इसलिए जहांतक मुझे याद है, दूसरे ही दिन पोर्टस्मथ छोड़ दिया। मेरे साथी वहां कुछ दिन रहे।

उस समय मैं 'धर्म क्या हैं, ईश्वर क्या चीज हैं, वह हमारे अंदर किस तरह काम करता हैं' ये बातें नहीं जानता था। लौकिक अर्थमें मैं समझा कि ईश्वरने मुझे बचाया। परंतु जीवनके विविध क्षेत्रोंमें भी मुझे ऐसे ही अनुभव हुए हैं। 'ईश्वरने बचाया' इस वाक्यका अर्थ मैं आज बहुत अच्छी तरह समझता हूं। पर यह भी जानता हूं कि अभी इसकी कीमत मैं ठीक-ठीक नहीं आंक सका हूं। यह तो अनुभवसे ही आंकी जा सकती है। पर हां, कितने ही आध्यात्मिक अवसरोंपर, वकालतके सिलसिलेमें, संस्थाओंका संचालन करते हुए, राजनैतिक मामलोंमें मैं कह सकता हूं कि 'ईश्वरने मुझे बचाया हैं।' मैंने अनुभव किया है कि जब चारों ओरसे आशायें छोड़ बैठनेका अवसर आ जाता है, हाथ-पांव ढीले पड़ने लगते हैं, तब कहीं-न-कहींसे सहायता अचानक आ पहुंचती हैं। स्तुति, उपासना, प्रार्थना, अंधविश्वास नहीं, बल्कि उतनी अथवा उससे भी अधिक सच बातें हैं, जितना कि हम खाते हैं, पीते हैं, चलते हैं, बैठते हैं, ये सच है। बल्कि यों कहनेमें भी अत्युक्ति नहीं कि यही एकमात्र सच है; दूसरी सब बातें झूठ हैं, मिथ्या है।

ऐसी उपासना, ऐसी प्रार्थना वाणीका वैभव नहीं है। उसका मूल कंठ नहीं, बल्कि हृदय है। अतएव यदि हम हृदयको निर्मल बना लें, उसके तारोंका सुर मिला ले, तो उसमेसे जो सुर निकलता है वह गगनगामी हो जाता है। उसके लिए जीभकी आवश्यकता नहीं। यह तो स्वभावतः ही अद्भुत वस्तु है। विकाररूपी मलकी शुद्धिके लिए हार्दिक उपासना एक जीवन-जड़ी है, इस विषयमें मुझे जरा भी संदेह नहीं। परंतु इस प्रसादीको पाने के लिए हमारे अंदर पूरी-पूरी नम्रता होनी चाहिए।