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अध्याय १३ : महाप्रदर्शिनी


अंतमें उन्होंने अमेरिका जानेका अपना निश्चय भी निबाहा। बड़ी मुश्किल से डेक या तीसरे दर्जेका टिकट प्राप्त कर सके थे। अमेरिकामें जब वह धोती और कुरता पहनकर निकले तो असभ्य पोशाक पहननेके जुर्ममें वह गिरफ्तार कर लिये गये थे। पर जहांतक मुझे याद है, बादमें वह छूट गये।

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महाप्रदर्शिनी

१८९० ई॰ में पेरिसमें एक महाप्रदर्शिनी हुई थी। उसकी तैयारियोंकी बातें मैं अखबारोंमें खूब पढ़ता था। इधर पेरिस देखनेकी तीव्र इच्छा तो थी ही। सोचा कि इस प्रदर्शिनी को देखने के लिए चला जाऊंगा तो दुहेरा लाभ हो जायगा। प्रदर्शिनी में एफिल टावर देखने का आकर्षण बहुत भारी था। यह टावर बिलकुल लोहेका बना हुआ हैं। एक हजार फीट ऊंचा है। इसके पहले लोगोंका खयाल था कि इतनी ऊंची इमारत खड़ी ही नहीं रह सकती। और भी अनेक बातें प्रदर्शिनी में देखने लायक थीं।

मैन कहीं पढ़ा था कि पेरिसमें अन्नाहार के लिए एक स्थान है। मैंने उसमें एक कमरा ले लिया। पेरिसतकका सफर गरीबीसे किया और वहां पहुंचा। सात दिन रहा। बहुत-कुछ तो पैदल ही चल कर देखा। पासमें पेरिस और उस प्रदर्शिनीकी गाइड तथा नकशा भी रखता था। उनकी सहायतासे रास्ते ढूंढकर मुख्य-मुख्य चीजें देख ली।

प्रदर्शिनीकी विशालता और विविधता के सिवा अब मुझे उसकी किसी चीजका स्मरण नहीं है। एफिल टावरपर तो दो-तीन बार चढ़ा था, इसलिए उसकी याद ठीक-ठीक है। पहली मंजिलपर खाने-पीनेकी सुविधा भी थी। इसलिए यह कहनेको कि इतनी ऊंचाईपर हमने खाना खाया, मैंने वहां भोजन किया और उसके लिए साढ़े सात शिलिंगको दियासलाई लगाई।

पेरिसके प्राचीन मंदिरोंकी याद अबतक कायम हैं। उनकी भव्यता और भीतरकी शांति कभी नहीं भुलाई जा सकती। नाट्रेडमकी कारीगरी और भीतरकी चित्रकारी मेरे स्मृति-पटपर अंकित है। यह प्रतीत हुआ कि जिन्होंने