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श्रीचन्द्रावली

११

चन्द्रा०- तेरी सौगन्द कुछ नहीं है ।

ललिता- क्या कुछ नहीं है, फिर तू चली न अपनी चाल से ? तेरी छलविद्या कही नहीं जाती, तू व्यर्थ इतना क्यों छिपाती है ! सखी ! तेरी मुखडा कहे देता है कि तू कुछ सोचा करती है।

चन्द्रा०- क्यों सखी ! मेरा मुखडा क्या कहे देता है ?

ललिता-यही कहे देते है कि तू किसी की प्रीति में फसी है ।

चन्द्रा०- बलिहारी सखी ! मुझे अच्छा कलक दिया । यह बलिहारी कुछ काम न आवेगी, अन्त में फिर मैं ही काम आऊँगी और मुझीसे सब कुछ कहना पडेगा, क्योंकि इस रोग का वैद्य मेरे सिवा दूसरा कोई न मिलेगा ।

चन्द्रा०-पर सखी ! जब कोई रोग हो तब न ?

ललिता-फिर वही बात कहे जाती है, अब क्या मैं इतना भी नहीं समझती ! सखी ! भगवान् ने मुझे भी आँखे दी हैं और मेरे भी मन है और मैं कुछ ईट-पत्थर की नही हुँ ।

चन्द्रा०- यह कौन कहता है कि तू ईट-पत्थर की बनी है, इसमे क्या ?

ललिता-इसमे यह कि इस ब्रज में रहकर उससे वही बची होगी जो ईट-पत्थर की होगी ।

चन्द्रा०- किससे ?

ललिता- जिसके पीछे तेरी यह दशा है।

चन्द्रा०- किसके पीछे मेरी यह दशा है ?

ललिता-सखी ! तू फिर वही बात कहे जाती है । मेरी रानी, ये आँख ऐसी बुरी हैं कि जब किसी से लगती हैं तब कितना भी छिपाओ नही छिपतीं ।

छिपाये छिपत न नैन लगे।

उघरि परत,सब जानि जात हैं घूंघट मैं न खगे । कितनो करौ दुराव, दुरत नहीं जब ये प्रेम-पगे ॥

निडर भए उघरे से डोलत मोहनरंग रँगे ॥

चन्द्रा०- वाह सखी ! क्यों न हो, तेरी क्या बात है। अब तू ही तो एक पहेली बुझनेवालों में बची है। चल, बहुत झूठ न बोल, कुछ भगवान् से भी डर।

ललिता- जो तू भगवान् से डरती तो झूठ क्यों बोलती? वाह सखी ! अब तो तू बडी चतुर हो गई है। कैसा अपना दोप छिपाने को मुझे पहिले ही से झूठी बना दिया। (हाथ जोड कर) धन्य है, तू दण्डवत करने के योग्य है।