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श्रीचन्द्रावली

कृपा करके अपना चाँया निकाल तो मैं भी पूजा करू । चल मैं आज पीछे तुझसे कुछ न पूछूँगी ।

चन्द्रा०- (कुछ सकपकानी सी होकर) नहीं सखी, तू क्यों झूठी है, झूठी तो मैं हूँ,और जो तू ही बात न पूछेगी तो कौन बात पूछेगा ? सखी ! तेरे ही भरोसे तो मैं ऐसी निडर रहती हूँ और तू ऐसी रूसी जाती है !

ललिता- नहीं, बस अब मैं कभी कुछ नहीं पूछने की । एक बेर पूछ कर पल पा चुकी।

चन्द्रा०-(हाथ जोडकर) नहीं सखी ! ऐसी बात मुँह से मत निकाल । एक तो मैं आप ही मर रही हूँ, तेरी बात सुनने से और भी अधमरी हो जाऊँगी । (आँखों मे आँसू भर लेती है) ।

ललिता-प्यारी ! तुझे मेरी सौगन्ध । उदास न हो, मैं तो सब भाँति तेरी हूँ और तेरे भले के हेतु प्राण देने को तैयार हूँ । यह तो मैने हँसी की थी । क्या मैं नहीं जानती कि तू मुझसे कोई बात न छिपावेगी और छिपावेगी तो काम कैसे चलेगा, देख !

हम भेद न जानिहै जो पै कुछ,
  औ दुराव सखी हम मैं परिहै ।

कहि कौन मिलैहै पियारे पियै,

  पुनि कारज कासों सबै सरिहै ॥

बिन मासों कहै न उपाय कछू,

  यह बेदन दूसरी को हरिहै ।

नहिं रोगी बताइहै रोगाहि जौ,

सखी बापुरो बैद कहा करिहै ॥

चन्द्रा०- तो सखी, ऐसी कौन बात है जो तुझसे छिपा है? तू जानबूझ के बार- बार क्यों पूछती है ? ऐसी पूछने को तो मूँह चिढाना कहते हैं और इसके सिवा मुझे व्यर्थ याद दिलाकर क्यों दुःख देती है ? हा !

ललिता- सखी ! मैं तो पहिले ही समझी थी , यह तो केवल तेरे हठ करने से मैने इतना पूछा, नहीं तो मैं क्या नहीं जानती ?

चन्द्रा०- सखी , मैं क्या करूँ, मै कितना चाहता हूँ कि यह ध्यान भुला दूँ , पर उस निदुन की छवि भूलती नहीं , इससे सब जान जाते हैं ।

ललिता- सखी , ठीक है ।