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श्रीचंद्रावली

१३

लगैंही चितवन औरहि होति।

दुरत न लाख दुराओ कोऊ प्रेम झलक की जोति। घूँंघट मैं नाहिं तिरत तनिक हूँ आति ललचौंही बानि । छिपत न कैसहूँ प्रीति निगोडी अन्त जात सब जानि ॥

चन्दा०- सखी, ठीक हैं, जो दोष है वह इन्हीं नेत्रों का है । यही रीझते, यही अपने को छिपा नही सकते और यही दुष्ट अन्त मे अपने किए पर रोते । सावी ये नैना वहुत बुरे ।

तब सों भए पराये, हरि सों जब सों जाइ जुरे ॥

मोहन के रस बस है डोलत तलफत तनिक दुरे ।

मेरी सीख प्रीति सब छाँडी ऐसे ये निगुरे ॥
जग खीझ्यौ बरज्यौ पै ये नहि हठ सों तनिक मुरे।

अमृत-भरे देखत कमलन से विप के बुते छुरे ॥

ललिता-इसमे क्या संदेह है । मुझ पर तो सब कुछ बीत चुकीहैं । मैं इनके व्यवहारों को अच्छी रीति से जानती हूँ । ये निगोडे नैन ऐसे ही होते हैं। होत सखि ये उलझौ हैं नैन । उरझि परत, मुरझ्यौ नहि जानत, सोचत समुझत हैं न ॥ कोऊ नहिं बरजै जो इनको बनत मत्त जिमि गैन । कहा कहौ इन बैरिन पाछे होत लैन के दैन ॥

चन्द्रा०-और फिर इनका हठ ऐसा है कि जिसकी छवि पर रीझते हैं उसे भूलते नहीं, और कैसे भूलें, क्या भूलने कै योग्य है, हा ! नैना वह छबि नाहिंन भूले । दया-भरी चहुँ दिसि की चितवनि नैन कमल-दल फूले । वह आवनि, वह हैंसनि छबीली, वह मुसकनि चित चौरैं ॥ वह बतरानि, मुरनि हरि की वह, वह देखन चहु कोरै । वह धीरी गति कमल फिरावन कर ले गायन पाछे । वह बीरी मुख बेनु बजावनि पीत पिछौरी काछे॥ परबस भए फिरत हैं नैना इक छन टरत न टारे। इरि-सीस-मुख ऐसी छबि निरखत तनमन धन सब हारे॥

ललिता-सखी । मेरी तो यह बिपति भोगी हुई है । इससे मैं तुझे कुछ नहीं कहती; दुरारी होती तो तेरी निन्दा करती और तुझे इससे रोकती ॥