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श्रीचन्द्रऱवली

१५

ललिता - सखी ! तुझे मैं क्या समझाऊँगी, पर मेरी इतनी विनती हैं कि तू

उदास मत हो ; जो तेरी इच्छा हो , पूरी करने को उद्यत हूँ ।

चन्द्रा०- हा ! सखी यही तो आश्चर्य है कि मुझे कुछ इदृछा नही हैं और न कुछ चाहती हूँ । तो भी मुझको उसके वियोग का व्रड़ा दुःख होता है ।

ललिता-सखी, मै तो पहले ही कह चुकी कि तू धन्य है I संसार मे जितना प्रेम होता है, कुछ इच्छा लेकर होता है और सब लोग अपने ही सुख मे सुख मानते हे, पर उसके विरुद्ध तूविना इदृछा के प्रेम करती और प्रीतम के सुख से मुख मानती है । वह तेरी चाल संसार से निराली है । इसीसे मैंने कहा था कि तू प्रेमियों के मण्डल को पवित्र करनेवाली है । (चंद्रावली नेत्रों मे जल भरकर मुख नीचा कर लेती है) (दासी आकर)

दासी- अरी । मैया खीझ रही है के वाहि घरके कछू और हूँ काम-काज है के एक हाहा ठीठी ही है, चल उठि, भोर सों यही पडी रही ।

चन्द्रा०-चल आऊँ, बिना बात की बकवाद लगाई । (ललिता से )सुन सखी ! इसकी बाते मुन, चल चले । (लम्बी साँस लेकर उठती है) । (तीनों जाती हैं)

॥ स्नेहालाप नामक पहिला अंक समाप्त ॥


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