पृष्ठ:Shri Chandravali - Bharatendu Harschandra - 1933.pdf/१६

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दूसरा अंक
स्थान―केले का वन
समय संध्या का, कुछ बादल छाए हुए
(वियोगिनी यनी हुई श्री चन्द्रावलीजी आती हैं)

चन्द्रा०―(एक वृक्ष के नीचे बैठकर) वाह प्यारे! वाह! तुम और तुम्हारा प्रेम दोनो विलक्षण हैं; और निश्चय, बिना तुम्हारी कृपा के इसका भेद कोई नहीं जानता; जाने कैसे? सभी उसके अधिकारी भी तो नहीं हैं। जिसने जो समझा है, उसने वैसा ही मान रखा है। हा! यह तुम्हारा जो अखण्ड परमानन्दमय प्रेम है और जो ज्ञान वैराग्यादिकों को तुच्छ करके परम शान्ति देनेवाला है उसका कोई स्वरुप ही नही जानता, सब अपने ही सुख में और अभिमान मे भूले हुए हैं; कोई किसी स्त्री से वा पुरुष से उसको सुंदर देखकर चित्त लगाना और उससे मिलने के अनेक यत्न करना, इसीको प्रेम कहते है, और कोई ईश्वर की बडी लम्बी-चौडी पूजा करने को प्रेम कहते हैं―पर प्यारे! तुम्हारा प्रेम इन दोनों से विलक्षण हैं, क्योंकि यह अमृत तो उसीको मिलता है जिसे तुम आप देते हो। (कुछ ठहरकर) हाय! किससे कहूँ, औंर क्या कहूँ, और कयों कहुँँ, और कौन सुने और सुने भी तो कौन समझे― हा!

जग जानत कौन है प्रेम-बिथा,
केहि सों चरचा या वियोग की कीजिए।
पुनि को कही मानै कहा समुझौ, कोउ,
क्यौं बिन बात की रारहि लीजिए॥
नित जो 'हरिचंद' जू बीतै सहै,
बकिकै जग क्यों परतीतहि छोजिए।
सब पुछत मौन क्यों बैठि रही,

पिय प्यारे कहा इन्हैं उत्तर दीजिए॥

क्योंकि―

मरम की पीर न जानत कोय।

कासों कहैं कौन पुनि मानैं बैठि रहीं घर रोय॥