पृष्ठ:Shri Chandravali - Bharatendu Harschandra - 1933.pdf/१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

श्रीचन्द्रावली 'हरिचनद' भए है कहा के कहा,

  अनबोलिबे मे नहिं छाजत  हाै॥

नित को मिलनो तो किनारे रहयो,

 मुख देखत ही दुरि भाजत हो।

पहिले अपनाइ बढाइकै नेह,

  न रुसिबे में अब लाजत हाै॥

प्यारे! जो यही गति करनी थी तो पहीले सोच लेते। क्योंकि - तुम्हारे तुम्हारे सब कोऊ कहै,

   तुम्है सो कहा प्यारे सुनात नही।

बिरुदवली आपुनी राखाै मिलाै,

   मोहि सोचिबे की कोउ बात नही॥

'हरिचनद जू' होनी हुती सो भई,

       इन बातन सों कछु होत नही।

अपनावते सोच बिचारि तबै,

 जलपान कै पूछकै जात नही॥

प्राणनाथ!-( आॅखो मे आॅंसू उमड उठे) अरे नेत्राैं ! अपने किए का फल भोगो। घाइकै आगे मिली पहिले तुम,

   काैन सों पूछिकै सो मोहि भाखाै।

त्यौं सब लाज तजी छिन मै,

  केहिके कहे एताै कियो अमिलाखाै॥

काज बिगारि सबै अपनो

 'हरिचनद  जू' धीरज क्यों नहि राखाै।
क्यों अब रोइकै प्रान तजाै,

अपुने किए को फल क्यों नहि चाखाै॥

हा!

इन दुखियान को न सुख सपने हू मिल्याौ,

योही सदा व्याकुल बिकल अकुलायँगी।

प्यारे 'हरिचनद जू' की बीती जानि औध जाै पै

  जैहै प्रान तऊ ये तो साथ न समायँगी॥

देख्यो एक बार हू न नैन भरि तोहि याते जाैन जाैन लोक जैहें तहीं पछितायँगी॥