पृष्ठ:Shri Chandravali - Bharatendu Harschandra - 1933.pdf/२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

 

 

समर्पण

प्यारे!

लो, तुम्हारी चंद्रावली तुम्हें समर्पित है। अंगीकार तो किया ही है, इस पुस्तक को भी उन्हींकी कानि से अंगीकर करो! इसमें तुम्हारे उस प्रेम का वर्णन है, इस प्रेम का नही जो संसार में प्रचलित है। हाँ, एक अपराध तो हुआ जो अवश्य क्षमा करना होगा। वह यह कि यह प्रेम की दशा छापकर प्रसिद्ध की गई। वा प्रसिद्ध करने ही से क्या जो अधिकारी नही है उनकी समझ ही में न आवेगा।

तुम्हारी कुछ विचित्र गति है। हमी को देखो। जब अपराधों को स्मरण करो तब ऐसे कि कुछ कहना ही नहीं। क्षण भर जीने के योग्य नही। पृथ्वी पर पैर धरने की जगह नहीं। मुँह दिखाने के लायक नही। और जो यों देखो तो ये लम्बे-लम्बे मनोरथ। यह बोलचाल। यह ढिठाई की तुम्हारा सिद्धांत कह डालना। जो हो, इस दूध-खटाई की एकत्र स्थिति का करण तुम्हीँ जानो। इसमें कोई संदेह नही कि जैसे हों तुम्हारे बनते है। अतएव क्षमासमुद्र! क्षमा करो! इसी में निर्वाह है। बस—

भाद्रपद कृष्ण १४

हरिश्चन्द्र

सं॰ १९३३