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श्रीचन्द्रावली

मैं तो अब यहाँ...(कण्ठ गदगद होकर रोने लगती है) हाय रे निठुर! मै ऐसा निरमोही नहीं समझी थी, अरे इन बादलों की ओर देख के तो मिलता। इस ऋतु मे तो परदेसी भी अपने घर आ जाते हैं पर तू न मिला। हा! मैं इसी दुख को देखने को जीती हूँ कि बरषा आवे और तुम न आओ। हाय! फेर वरषा आई, फेर कोइल बोली, पर प्यारे तुम न मिले! हाय! सब सखियॉ हिंडोले झूलती होगी, पर मैं किसके संग झूलूँ,क्योंकि हिंडोला झुलाने बाले मिलेगे, पर आप भींजकर मुझे बचानेवाला और प्यारी कहनेवाला कौन मिलेगा? (रोती है) हा! मैं बड़ी निर्लज्ज हूँ। अरे प्रेम! मैंने प्रेमिन बनकर तुझे भी लज्जित किया कि अब तक जीती हूँ, इन प्रानों को अब न जाने कौन लाहे लूटने है कि नही निकलते। अरे कोई देखो, मेरी छाती वज्र की तो नहीं है कि अब तक...(इतना कहते ही मूछी सवाकर ज्योंही गिरा चाहती है उसी समय तीनों सखियाँ सम्हालती हैं)।

(जवनिका गिरती है)

॥प्रियान्वेपण नामक दूसरा अंक समास॥



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