पृष्ठ:Shri Chandravali - Bharatendu Harschandra - 1933.pdf/२८

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दूसरे अंक के अंतर्गत

                       ===== अंकावतार =====
                         स्थान-- बीथी, वृक्ष
                     (संध्याव्ली दौड़ी हुई आती है)

संध्या°---राम राम! मैं तो दौरत दौरत हार गई, या ब्रज की गऊ का हैं साँड़ हैं; कैसी एक साथ पूँछ उठाय कै मेरे संग दौरी हैं, तापैं वा निपूते सुबल को बुरो होय, और हू तूमड़ी बजाय कै मेरी ओर उन सबन को लहकाय दीनों, अरे जो मैं एक संग प्रान छोड़ि के न भाजती तौ उनके रपट्टा में कब की आय जाती। देखि आज वा सुबल की कौन गति कराऊँ, बड़ो ढ़ीठ भयो है, प्रानन की हॉसी कौन काम की। देखो तौ आज सोमवार है नंद गाँव में हाट लगी होयगी मैं वही जाती, इन सबन ने बीच ही आय धरी, मै चन्द्रावली की पाती वाकै यारैं सौप देती तो इतनो खुटकोऊ न रहतो। (घबड़ाकर) अरे आईं ये गौवें तो फेर इतैही कू अरराईं। (दौड़कर जाती है और चोली मे से पत्र गिर पड़ता है। चंपकलता आती है)

चंपक° ---(पत्र गिरा हुआ देखकर) अरे! यह चिट्ठी किसकी पड़ी है, किसी की हो, देखूँ तो इसमे क्या लिखा है? (उठाकर देखती है) राम राम! न जाने किस दुनिया की लिखी है कि आँसुओं से भींजकर ऐसी चिपट गई है कि पढ़ी ही नहीं जाती और खोलने में फट जाती है। (बड़ी कठिनाई से खोलकर पढ़ती है)

"प्यारे!

   क्या लिखूँ! तुम बड़े दुष्ट हो, चलो, भला सब अपनी वीरता हमीं पर दिखानी थी। हाँ! भला मैंने तो लोक-वेद, अपना-बिराना सब छोड़कर तुम्हे पाया, तुमने हमें छोड़कर क्या पाया? और जो धर्म उपदेश करो तो धर्म से फल होता है, फल से धर्म नहीं होता। निर्लज, लाज भी नहीं आती, मुँह ढँको फिर भी बोलने बिना डूबे जाते हो। चलो वाह! अच्छी प्रीति निबाही। जो हो, तुम जानते ही हौ, हाय कभी न करूँगी योंहीं सही, अंत मरना है, मैंने अपनी ओर से खबर दे दी, अब मेरा दोष नहीं, बस।
                                              "केवल तुम्हारी"