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श्रीचन्द्रावली

(लंबी साँस लेकर) हा! बुरा रोग है, न करै कि किसी के सिर बैठे-बिठाए यह चक्र घहराय। इस चिट्ठी के देखने से कलेजा काँपा जाता है। बुरा! तिसमें स्त्रियों की बड़ी बुरी दशा है, क्योंकि कपोतव्रत बुरा होता है कि गला घोंट डालो मुँह से बात न निकले। प्रेम भी इसीका नाम है। राम राम! उस मुँह से जीभ खिंच ली जाय जिससे हाय निकले। इस व्यथा को जानती हुँ और कोई क्या जानेगा क्योंकि “जाके पाँव न भई बिवाई सो क्या जाने पीर पराई”। यह हो हुआ पर यह चिट्ठी है किसकी? यह न जान पड़ी (कुछ सोचकर) अहा जानी! निश्चय यह चन्द्रावली का चिह्न भी बनाया है। हा! मेरी सखी बुरी फँसी। मैं तो पहिले ही उसके लच्छनों जान गई थी, पर इतना नहीं जानती थी; अहा गुप्त प्रीति भी विलक्षण होती है, देखो इस प्रीति में संसार की रीति से कुछ भी लाभ नहीं। मनुष्य न इधर का होता न उधर का। संसार के सुख छोड़कर अपने हाथ आप मूर्ख बन जाता है। जो हो, यह पत्र तो मैं आप उन्हें जाकर दे आउँगी और मिलने की भी बिनती करुँगी।

(नेपथ्य में बूढ़ों के से सुर से)

हाँ तू सब करेगी।

चंप०―(सुनकर और सोचकर) अरे यह कौन है। (देखकर) न जानै कोऊ बूढ़ी फूस-सी डोकरी है। ऐसो न होय कै यह बात फोड़ि कै उलटी आग लगावै, अब तो पहिलै याहि समझावनो परयो, चलूँ।

(जाती है)
 

॥भेद प्रकाशन नामक अंकावतार॥



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