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श्रीचन्द्रावली

सूत्र०―(हँसकर) इसमे तुम्हारा दोष नहीं, तुम तो उससे नित्य नहीं मिलते। जो लोग उसके संग में रहते हैं वे तो उसको जानते ही नहीं, तुम बिचारे क्या हो।

पारि०―(आश्चर्य से) हाँ, मैं तो जानता ही न था, भला कहो उनके दो-चार गुण मैं भी सुन सकता हूँ?

सूत्र०―क्यों नहीं, पर जो श्रद्धा से सुनो तो।

पारि०―मैं प्रति रोम को कर्ण बना कर महाराज पृथु हो रहा हूँ, आप कहिए।

सूत्र०-(आनन्द से) सुनो―


परम-प्रेमनिधि रसिक-बर, अति-उदार गुन-खान।
जग-जन-रंजन, आशु-कवि, को हरिचन्द-समान॥
जिन श्रीगिरिधरदास कवि, रचे ग्रन्थ चालीस।
ता-सुत श्रीहरिचन्द कों, को न नवावै सीस॥
जग जिन तृन-सम करि तज्यौ, अपने प्रेम-प्रभाव।
करि गुलाब सों आचमन, लीजत वाको नॉव॥
चन्द टरै सूरज टरे, टरै जगत के नेम।
यह दृढ़, श्रीहरिचन्द को, टरै न अविचल प्रेम॥

पारि०―वाह-वाह! मैं ऐसा नहीं जानता था, तब तो इस प्रयोग में देर करनी ही भूल है।

(नेपथ्य में)


स्रवन-सुखद भव-भय-हरन, त्यागिन को अत्याग।
नष्ट-जीव विनु कौन हरि-गुन सों करै विराग॥
हम सौहू तजि जात नहिं, परम पुन्य फल जौन।
कृष्णकथा सौं मधुरतर जग में भाखौ कौन?॥

सूत्र―(सुनकर आनन्द से) अहा! वह देखो मेरा प्यारा छोटा भाई शुकदेव जी बनकर रंगशाला में आता है और हमलोग बातों ही से नहीं सुलझे। तो अब मारिष! चलो, हम लोग भी अपना-अपना वेष धारण करें।

पारि०―क्षण भर और ठहरो, मुझे शुकदेव जी के इस वेष की शोभा देख लेने दो, तब चलूँगा।

सूत्र०―सच कहा, अहा कैसा सुन्दर बना है, वाह मेरे भाई वाह! क्यों न हो, आखिर तो मुझ रंगरंजक का भाई है।