श्रीचन्द्रावली डोरे लाल लाल रस बोरे फैली मुख उँजियारी ॥ हाथ सरंगी लिए बजावत प्रेमिन-प्रानपियारी ॥ जोगिन मुख पर लट लटकाई । कारी घरवारी प्यारी देखत सब मन भाई । छूटे केस गेरुआ बागे सोभा दुगुन बढ़ाई । साँचे ढरी प्रेम की मृरति अँखियाँ निरखि सिराई ।। (नेपथ्य में से पैजनी की झनकार सुनकर) अरे कोई आता है। तो मैं छिप रहूँ। चुपचाप सुनें । देखू यह सब क्या बाते करती हैं। (जोगिन जाती है, ललिता आती है) ललिता-हैं ! अब तक चन्द्रावली नही आई । साँझ हो गई, न घर में कोई सखी है न दासी, भला कोई चोर-चकार चला आवै तो क्या हो । (खिड़की की ओर देखकर) अहा ! जमुनाजी की कैसी शोभा हो रही है। जैसा वर्षा का बीतना और शरद का आरंभ होना वैसा ही वृन्दावन के फूलों की सुगंधि से मिले हुए पवन की झकोर से जमुनाजी का लहराना कैसा सुन्दर और सुहावना है कि चित्त को मोहे लेता है । आहा ! जमुनाजी की शोभा तो कुछ कही ही नहीं जाती। इस समय चन्द्रावली होती तो यह शोभा उसे दिखाती, वा वह देख ही के क्या करती, उलटा उसका विरह और बढ़ता । (यमुनाजी की ओर देखकर) निस्संदेह इस समय बड़ी ही शोभा है । तरनि-तनूजा-तट तमाल तरुवर बहु छाए । झुके कूल सों जल-परसन हित मनहुँ सुहाए ।। किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा । कै प्रनवत जल जानि परन पावन फल लोभा ।। मनु आतप बारन तीर को समिटि सबै छाए रहत । कै हरि-सेवा-हित नै रहे निरखि नैन मन सुख लहत ।। कहूँ तीर पर कमल अमल सोभित बहु भाँतिन । कहुँ सैवालन मध्य कुमुदिनी लगि रहि पाँतिन ।। मनु दृग धारि अनेक जमुन निरखत ब्रज सोभा । कै उमगे पिय-प्रिया-प्रेम के अनगिन गोभा ।। कै करिके कर बहु पीय को टेरत निज ढिग सोहई । कै पूजन को उपचार लै चलति मिलन मन मोहई ।।