श्रीचन्द्रावली ४३ 'हरीचंद' औरो घबरात समुझाएँ हाय हिचकि-हिचकि रोवै जीवति मरी रहै । याद आएँ सखिन रोवावै दुख कहि-कहि तो लौ मुख पावै जौ लौ मुरछि परी रहै ॥ अब तो मुझसे रहा नहीं जाता । इससे मिलने को अब तो सभी अंग व्याकुल हो रहे हैं। चन्द्रा--(ललिता की बात मुनी-अनमुनी करके बाएँ अंग का फरकना देखकर आप ही आप) अरे यह असमय में अच्छा सगुन क्यों होता है । (कुछ ठहरकर) हाय आशा भी क्या ही बुरी वस्तु है और प्रेम भी मनुष्य को कैसा अंधा कर देता है। भला वह कहाँ और मैं कहॉ-पर जी इसी भरोसे पर फूला जाता है कि अच्छा सगुन हुआ है तो जरूर आवेंगे । (हँसकर) है- उनको हमारी इस बखत फिकिर होगी। “मान न मान मैं तेरा मेहमान", मन को अपने ही मतलब की सूझती है । "मेरो पिय मोहि बात न पूछे तऊ सोहागिन नाम' । (लम्बी सॉस लेकर) हा ! देखो प्रेम की गति ! यह कभी आशा नहीं छोड़ती। जिसको आप चाहो वह चाहे झूठ-मूट भी बात न पूछे पर अपने जी को यह भरोसा रहता है कि वे भी जरूर ही इतना चाहते होगे । (कलेजे पर हाथ रखकर) रहो रहो क्यों उमगे आते हो, धीरज धरो, वे कुछ दीवार में से थोड़े ही निकल आवेंगे। जोगिन-(आप ही आप) होगा प्यारी, ऐसा ही होगा। प्यारी मैं तो यही हूँ। यह मेरा ही कलेजा है कि अंतर्यामी कहलाकर भी अपने लोगों से मिलने में इतनी देर लगती है। (प्रगट सामने बढ़कर) अलख ! अलख ! (दोनों आदर करके बैठती हैं) ललिता-हमारे बड़े भाग जो आपुसी महात्मा के दरसन भए । चन्द्रा०-(आप ही आप) न जानें क्यों इस जोगिन की ओर मेरा मन आपसे आप खिंचा जाता है । जोगिन-भलो हम अतीतन को दरसन कहा, यों ही नित्य ही घर-घर डोलत फिरें । ललिता-कहाँ तुम्हारो देस है ? जोगिन-प्रेम नगर पिय गाँव । ललिता-कहा गुरू कहि बोलहीं ? जोगिन-प्रेमी मेरो नाँव ।। ललिता-जोग लियो केहि कारनै ?