पृष्ठ:Shri Chandravali - Bharatendu Harschandra - 1933.pdf/४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४४
श्रीचन्द्रावली

जोगिन―अपने पिय के काज।

ललिता―मंत्र कौन?

जोगिन―पियनाम इक,

ललिता―कहा तज्यो ? जोगिन-जग-लाज ॥ ललिता-आसन कित ? जोगिन-जितही रमे, ललिता-पंथ कौन ? जोगिन-अनुराग। ललिता-साधन कौन ? जोगिन-पिया-मिलन, ललिता-गादी कौन ? जोगिन-सुहाग ॥ नैन कहें गुरु मन दियो बिरह सिद्धि उपदेस । तब सों सब कुछ छोड़ि हम फिरत देस-परदेस ।। चन्द्रा०—(आप ही आप) हाय ! यह भी कोई बड़ी भारी बियोगिन है तभी इसकी ओर मेरा मन आपसे आप खिंचा जाता है । ललिता-तौ संसार को जोग तो और ही रकम को है और आप को तो पंथ ही दूसरो है । तो भला हम यह पूछ कि का ससार के और जोगी लोग वृथा जोग साधे हैं ? जोगिन-यामैं का सन्देह है, सुनो । (सारंगी छेड़कर गाती है) पचि मरत वृथा सब लोग जोग सिर धारी । साँची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी || बिरहागिन धूनी चारों ओर लगाई। बसी धुनि की मुद्रा कानो पहिराई ।। अमुअन की सेली गल में लगत सुहाई । तन धूर जमी सोइ अंग भभूत रमाई ।। लट उरझि रही सोइ लटकाई लट कारी । साँची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी ॥ गुरु बिरह दियो उपदेस सुनो ब्रजबाला । पिय बिठुरन दुख बिछाओ तुम मृगछाला ||