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श्रीचन्द्रावली

श्रीचन्द्रावली मन के मनके की जपो पिया की माला । बिरहिन की तो हैं सभी निराली चाला || पीतम से लगि लो अचल समाधि न टारी । साँची जोगिन पिय बिना वियोगिन नारी ।। यह है मुहाग का अचल हमारे बाना । असगुन की मूरति खाक न कभी चढ़ाना ।। सिर सेदुर देकर चोटी Dथ बनाना । कर चूरी मुख में रंग तमोल जमाना ।। पीना प्याला भर रखना वही खुमारी । साँची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी ।। है पथ हमारा नैनो के मत जाना । कुल लोक वेद सब औ परलोक मिटाना ।। शिवजी से जोगी को भी जोग सिखाना । 'हरिचंद' एक प्यारे से नेह बढ़ाना ।। ऐसे बियोग पर लाख जोग बलिहारी । साँची जोगिन पिय बिना वियोगिन नारी ।। चन्द्रा-(आप ही आप) हाय-हाय ! इसका गाना कैसा जी को वेधे डालता है । इसके शब्द का जी पर एक ऐसा विचित्र अधिकार होता है कि वर्णन के बाहर है। या मेरा जी ही चोटल हो रहा है। हाय-हाय ! ठीक प्रान- प्यारे की-सी इसकी आवाज है । (बलपूर्वक आँसुओं को रोककर और जी बहला कर) कुछ इससे और गवाऊँ । (प्रगट) जोगिन जी कष्ट न हो तो कुछ और गाओ । (कहकर कभी चाव से उसकी ओर देखती है और कभी नीचा सिर करके कुछ सोचने लगती है) जोगिन-(मुस्कराकर) अच्छा प्यारी सुनो । (गाती है) जोगिन-रूपसुधा को प्यासी । बिन पिय मिलें फिरत बन ही बन छाई मुखहि उदासी । भोग छोड़ि धन-धाम काम तजि भई प्रेम-बनबासी । पिय-हित अलख अलख रट लागी पीतम-रूप उपासी ।। मनमोहन प्यारे तेरे लिए जोगिन बन बन-बन छान फिरी । कोमल से तन पर खाक मली ले जोग स्वाँग सामान फिरी ।।