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श्रीचन्द्रावली

४६ श्रीचन्द्रावली तेरे दरसन कारन डगर-डगर करती तेरा गुन-गान फिरी । अब तो सूरत दिग्वला प्यारे 'हरिचंद' बहुत हैरान फिरी ।। चन्द्रा०-(आप ही आप) हाय यह तो सभी बातें पते की कहती है । मेरा कलेजा तो एक साथ ऊपर को खिंचा जाता है। हाय ! 'अब तो सूरत दिखला प्यारे। जोगिन-तो अब तुमको भी गाना होगा। यहाँ तो फकीर हैं । हम तुम्हारे सामने गावें तुम हमारे सामने न गाओगी। (आप ही आप) भला इसी बहाने प्यारी को अमृत बानी तो सुनेगे । (प्रगट) हाँ ! देखो हमारी यह पहिली भिक्षा खाली न जाय, हम तो फकीर हैं हमसे कौन लाज है ? चन्द्रा०-भला मैं गाना क्या जाने । और फिर मेरा जी भी आज अच्छा नहीं है, गला बैठा हुआ है । (कुछ ठहरकर नीची आँख करके) और फिर मुझे सकोच लगता है। जोगिन--(मुसक्याकर) वाह रे संकोचवाली ! भला मुझसे कौन संकोच है ? मैं फिर रूट जाऊँगी जो मेरा कहना न करेगी । चन्द्रा०-(आप ही आप) हाय-हाय ! इसकी कैसी मीठी बोलन है जो एक साथ जी को छीने लेती है। जरा से झुठे क्रोध से जो इसने भौहे तनेनी की हैं वह कैसी भली मालूम पड़ती है। हाय ! प्राननाथ कहीं तुम्हीं तो जोगिन नहीं बन आए हो। (प्रगट) नहीं-नहीं, रूठो मत, मैं क्यों न गाऊँगी। जो भला-बुरा आता है सुना दूंगी, पर फिर भी कहती हूँ आप मेरे गाने से प्रसन्न न होंगी। ऐ मैं हाथ जोड़ती हूँ मुझे न गवाओ। (हाथ जोड़ती है) ललिता-वाह, तुझे नए पाहुने की बात अवश्य माननी होगी। ले मैं तेरे हाथ __ जोड़े हूँ, क्यों न गावगी । यह तो उससे बहाली बता जो न जानती हो । चन्द्रा-तो तू ही क्यों नहीं गाती । दूसरों पर हुकुम चलाने को तो बड़ी मुस्तैद होती है। जोगिन-हाँ हाँ, सखी तू ही न पहिले गा। ले मैं सरंगी से सुर की आस देती जाती हूँ। ललिता-यह देखो । जो बोले सो घी को जाय । मुझे क्या, मैं अभी गाती हूँ। (राग बिहाग-गाती है) अलख गति जुगल पिया-प्यारी की । को लखि सकै लखत नहिं आवै तेरी गिरधारी की।