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श्रीचन्द्रावली
और बढ़े हुए मनोरथों को किस को सुनावें जो काव्य के एक-एक तुक
और संगीत की एक-एक तान से लाख-लाखगुन बढ़ते हैं और तुम्हारे
मधुर रूप और चरित्र के ध्यान से अपने आप ऐसे उज्ज्वल सरस और
प्रेममय हो जाते है, मानो सब प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे है । पर हा ! अन्त मे
करुण रस में उनकी समाप्ति होती है क्योकि शरीर की सुधि आते ही एक.
साथ बेबसी का समुद्र उमड़ पड़ता है ।
जोगिन-वाह अब यह क्या सोच रही हो ! गाओ ले, अब नही मानेंगी।
ललिता-हॉ सखी, अब अपना वचन सच कर ।
चन्द्रा०-(अोन्माद की भाँति) हाँ हाँ, मैं गाती हूँ।
(कभी ऑसू भरकर, कभी कई बेर, कभी टहरकर, कभी भाव बताकर,
कभी बेसुर-ताल ही, कभी ठीक-ठीक, कभी टूटी आवाज से पागल की भॉति
गाती है)
मन की कामों पीर सुनाऊँ ।
बकनो वृथा और पत खोनी सबै चवाई गाऊँ ।
कठिन दरद कोऊ नहिं हरिहै धरिहै उलटो नाऊँ ।
यह तो जो जानै सोइ जाने क्यों करि प्रगट जनाऊँ ।
रोम-रोम प्रति नैन श्रवन मन केहि धुनि रूप लखाऊँ ।
बिना सुजान-शिरोमनि री केहि हियरो काढ़ि दिखाऊं ॥
मरमिन सखिन बियोग-दुखिन क्यों कहि निज दसा रोआऊँ।
'हरीचंद' पिय मिले तो पग परि गहि पटुका समझाऊँ ।।
(गाते-गाते बेसुध होकर गिरा चाहती है कि एक बिजली सी चमकती है
और जोगिन श्रीकृष्ण बनकर उठाकर गले लगाती है और नेपथ्य में
बाजे बजते हैं)
ललिता--(बड़े आनंद से) सखी बधाई है, लाखन बधाई है । ले होस में आ जा!.
देख तो कौन तुझे गोद लिए हैं !
चन्द्रा०-(उन्माद की भाँति भगवान् के गले में लपटकर)
पिय तोहि राखौंगी भुजन मैं बॉधि ।
जान न दैहौँ तोहि पियारे धरौंगी हिए सो नाँधि ।
बाहर गर लगाइ राखौंगी अंतर करौंगी समाधि ।
'हरीचंद' छूटन नहिं पैही लाल चतुराई साधि ॥
पिय तोहि कैसे हिये राखौं छिपाय ?
सुन्दर रूप लखत सब कोऊ यह कसक जिय आय ॥
पृष्ठ:Shri Chandravali - Bharatendu Harschandra - 1933.pdf/४८
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