टिप्पणी
पहिला अन्क
चन्द्रस्वली-नाटिका की नायिका जिसके नाम पर ग्रन्थ का नामकरण हुआ हैं ।
रंगशाला- नाटक खेलने का स्थान ।
भरित नेहमन मोर-यह मंगलाचरण या नांदी है और प्रस्तुत नाटिका के
उपयुक्त हैं । दे० भूमिका । मंगलाचरण तीन प्रकार का भाना जाता है-
(१) वस्तुनिर्देंशात्मक, (२) नमस्कारात्मक और (३) आशीर्वादात्मक ।
जहाँ 'जय' या 'जयति' शब्द का प्रयोग होता हैं आशीर्वादात्मक मंगला-
चरण समझना चाहिए | कहा भी हे-'त्राहाण आशीर्वाद पाठ करता हुआ
आया' । यह दोहा भारतेन्दु हरिश्चंद्र को बहुत प्रिय था | "श्रीचन्द्रवली'
के अतिरिक्त वह 'कर्पूर मंजरी' (१८७५), 'मुद्राराक्षस' (१८७८), और
'प्रेम जोगिनी' (१८७५) नामक नाटय-कृतियों मे, और 'गीतगोविन्द'
(१८७८), 'होली' (१८७९) और 'प्रेम-फुलवारी' (१८८३) नामक काव्य-
ग्रन्थों में नांदी या मंगल पाठ के रुम में मिलता है ।
नेह नव नीर-प्रेम रूपी नया जल अर्थात् जो प्रेम नित नवीन बना रहता हैं ।
सुरस-अच्छा रस ।
अयोर-अ-थोर, थोड़े का उलटा, अर्थात् बहुत या अधिक ।
अलौकिक-अ-लौकिक, लोकोत्तर, दिव्य ।
घन-बादल, घनश्याम कृष्ण । प्रेम की दृष्टि से यहाॅ श्रीकृष्ण अर्थ होगा ।
मन मोर-मेरा मन, मन रूपी मोर |
नेति-नेति-जिसका अन्त न हो अर्थात् जिसका आदि-अंत ज्ञात नहीं है ।
तव-शब्द-प्रतिपाद्य-तत्- ब्र्म्ह, परमात्मा; प्रतिपाद्य-जिसके लिए प्रमाण
को आवश्यकता हो । जिसके लिए तत् शब्द का प्रमाण देने की
आवश्यकता हो
सर्व-(सठर्व) पूर्ण ।
चन्दावली-चकोर-चन्दावली रूपी चकोर, अर्थात् जिनके किए चन्दावली
चकोर है ।
सूत्रधार-दे० भूमिका (संक्षिप्त नाटय-शास्त्र):
पृष्ठ:Shri Chandravali - Bharatendu Harschandra - 1933.pdf/५२
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