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श्रीछन्द्रावली

मारिष-दे० भूमिका (सन्क्शिप्त नाट्य-शास्य)। नातकों में महात्माओं का सम्बोधन शब्द। पारिपाश्र्वक-दे० भूमिक (सन्क्शिप्त नाट्य- शास्त्र)। आरम्भ्शूर- जो केवल गुरु करना जानता हो और द्र्ढ़तापूर्वक कार्य पूर्न करनेवाला न हो। रोम- रोयाँ, छिद्र। कर्ण- कान। महाराज पृथु- सृष्टि के प्रारम्भ में राजा वेणु क पुत्र जो पृथ्वी-मन्डल क राज, धर्मात्मा और दिव्य तप और तेजवाला था। उसीके समय में पृथ्वी पर नगर, ग्राम आदि बसे। पृथु कि कन्या होने से धरिणी पृथ्वी कहलाई। 'पृथु' शब्द का प्रयोग यहाँ धार्मिक वृत्ति और विस्तार दोनो कें अर्थ में हुआ है। जितना अधिक शारीरिक विस्तार होगा उतने ही रोम रूपी कर्ण अधिक होंगे और उतना ही अधिक पारिपाश्र्वक सुन सकेगा। जग-जन-रंजन- सन्सार के मनुष्यों को प्रसन्न करनेवाला। आशु-कवि-शीघ्र ही कविता कर केनेवाल कवि। करि गुलाब नाँव- गुलाबजल से मुख धोकर जिसका नाम लेना चाहिए, अर्थात उनका नाम पवित्र समझकर लेना चाहिए। अविचल- अचल, अटल, जो विचलित ना हो। नेपथ्य- दे० भूमिका (सन्क्शिप्त नाट्य- शास्त्र)। त्यागिन कों अत्याग- त्यागियों के लिए न त्यागने योग्य, अर्थात जिसे त्यायी भी नहीं छोड़ते। नष्ट-जीव- जिस्की जीवात्मा नष्ट हो गई हो, पातकी। रंगरंजक- (रंगरंज)- रँगनेवाला। सलोना- लावण्य से भरा हुआ। टोना- जादू। मुख चन्द झलमले- मुख चन्द- मुख रूपी न्द्रमा, अर्थात जिसका मुख चन्द्रमा के समान ज्योतित है। स्वाँग- भेस, नकल।

विष्कम्भक

शुकदेव- महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास के पुत्र थे। वे प्रसिद्ध ब्रह्मतत्व-ज्ञानी थे और जीवन भर तपस्या करते रहे। उन्होंने ही राजा परीक्शित को भगवान सुनाया था।