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श्रीचन्द्रावली

अगम―अथाह, बहुत गहरे।

अघट―जो घटे न।

तीर्थ-मय कृष्णचरित―सब तीर्थो के समान कृष्ण-चरित्र।

काँवरि―बॅहगी।

भूगोल खगोल―पृथ्वी और आकाश।

कर-अमलक―हाथ क आँँवला, अर्थात् वह चीज या बात जिसका हरएक पहलू साफ-साफ जाहिर हो गया हो।

तुला―तराजू।

श्रीराग―भारतीय आचार्यो ने छः राग माने है, यद्यपि उनके नामों के सम्बन्ध मे मतभेद है। सामान्यतः भैरव, कौशिक, हिन्दोल, दीपक, श्री, मेघ, ये छः राग माने जाते है। श्रीराग मधुर राग माना जाता है।

राग सिन्धु―रागों का समुद्र (संगीत), अथवा अनुराग (प्रेम) का समुद्र।

तूंंबी, तूंंबा―कद्दू क खोखला करके बनाया गया पात्र जो वाणी मे लगा रहता है। संस्कृत मे वीणा की तूॅबी को दो नाम दिये गये है ―ककुभ और प्रसेवक।

ब्रह्म-जीव―ब्रह्म और जीव के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय मे विवाद।

निरगुन सुग―निर्गुण―जो ब्रह्म सत्व, रज और तम तीनों गुणों से परे हो। सगुन―साकार ब्रह्म, सत्व, रज और तम से युक्त। इन दोनों के सम्बन्ध मे विवाद।

द्वैताद्वैत―द्वैत और अद्वैत। द्वैत―वह दार्शनिक सिद्धन्त जिसमें जीव और ईश्वर को दो भिन्न पहार्थ मानकर विचार किये जाता है। मध्वाचार्य (१२५७ मे जन्म) द्वैत सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं। उनका कहाना है कि जिस प्रकार कारण से कार्य की उत्पत्ति होने पर दोनों पृथक्-पृथक् हैं, उसी प्रकार ईश्वर और जीव। अद्वैत―वह सिद्धन्त जिसमे चैतन्य या ब्रह्म के अतिरिक्त और किसी वस्तु या तत्व की वास्तव सत्ता नहीं मानी जाती और आत्मा परमात्मा मे कोइ भेद नही स्वीकार किया जाता। शन्कराचार्य (८वीं शताबदी) ने श्रुतियों के आधार पर अद्वैत का प्रचार किया।

द्वैताद्वैत को द्वैत और अद्वैत अलग–अलग वादों के रूप मे लिया जाना छाहिये। वैसे द्वैताद्वैत नामक एक मत के प्रवर्तक निंंबार्क स्वामी (१२वीं शताब्दी में) थे जिन्होने बताया कि ब्रह्म से भिन्न होते हुए भी जीव उसमे अपना अस्तित्व खो देता है।